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अचम्न
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चरणोंको नमस्कार किया। श्रीकृष्णजीभी उनसे बड़ी प्रमन्नतासे मिले।८३-८४। उसी समय मोहके वश रुक्मिणीने भी वनमें आकर रानी कनकमालासे बिनयपूर्वक भेंट की।८५। उसके पश्चात् श्रीकृष्ण जीने आगन्तुकोंका बड़े भारी उत्सवके साथ नगर प्रवेश कराया और भक्ति से उन्हें खूब सन्तुष्ट किया।८६।
नगरीमें उससमय बजते हुए बाजोंसे मनोहर, और नृत्य करती हुई स्त्रियोंके रमणीय गीतोंसे बड़ा भारी सुन्दर उत्सव हुअा।८७। कहीं तो मनुष्योंके बजाये हुये बाजोंका शब्द सुन पड़ता था, कहीं स्त्रियोंका किया हुआ नृत्य दिखलाई देता था, ८८। कहीं पताकायें उड़ती थीं, कहीं रत्नोंके तोरण लटकते थे और कहीं घोड़ोंके समूह, हाथियोंके झुण्ड, रथोंके थोक तथा छत्रवृन्द दिखलाई देते थे। इस प्रकार नाना भांतिके उत्सवोंसे वह नगरी सुशोभित हो रही थी।८९-६०।।
इसप्रकार चिंतित विभूतिके उपस्थित होनेपर प्रद्युम्नकुमार श्रीजिनेन्द्रदेवकी आठ प्रकार पूजा करके सब राजाओंके समीप गया। उनसे मिलने पर उसने कहा कि, मुझे सत्यभामा महाराणीके सिरकी वेणी मँगा दो, मैं उस पर पैर रखकर घोड़े पर चढूगा। क्योंकि इस बातकी प्रतिज्ञा श्रीबलदेवजी महाराज के समक्ष में हो चुकी है । सत्यभामाने यह बात स्वीकार की थी ।९१-९३। लोगोंके मुंहसे यह बात सुनकर कि प्रद्युम्नकुमार राजाओंके सामने वेणी मांगनेके लिये कह रहा है, रुक्मिणी महाराणी स्वयं अाकर बोली, बेटा तुझे ऐसा नहीं कहना चाहिये । श्रेष्ठपुरुषोंका यह काम नहीं है । तू वेणी ही क्या माँगता है ? तेरे द्वारिकामें आते ही सत्यभामाका तो सिरमुण्डन हो चुका, और वह सौ बार गधे पर चढ़ चुकी । अब प्रगट हुई बातको और क्या प्रगट करना है ? ६४-६५।
___ माताके रोकनेसे प्रद्युम्न चुप हो रहा, और घोड़ेपर चढ़कर याचकोंकी इच्छाओंको कल्पवृक्षके समान पूर्ण करता हुआ, कालसंवर बलदेव और श्रीकृष्णजीके साथ नानाप्रकारके उत्सवोंसहित, वनमें गया।९६-९७। सो उसी सुन्दरवनमें कामदेव (प्रद्युम्न) और रतिका विवाह हुआ। जिससे स्वजनजनोंको
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