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प्रचम्न
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वस्तु थी |४२ |
रुक्मिणीने अपनी वधूके साथ आकाशरूपी यांगनसे उतरकर विनय और भक्ति के सहित चरित्र श्रीकृष्णजीके चरणों को नमस्कार किया | ४३ | उन्हें देखकर नारायण बहुत प्रसन्न हुए और रुक्मिणी से बोले, तुम अपने मंत्रियों के साथ जाकर नगरीको उत्सवयुक्त तथा शोभायुक्त करो । ४४ । तब रुक्मिणी प्रसन्न होकर मन्त्रियों के साथ गई और पुत्रके श्रागमनका सूचक महोत्सव करने लगी । सारी नगरी शृङ्गारित की गई, चन्दनके पानीसे छिड़की गई और सुन्दर २ फूलोंसे गुल्फपर्यन्त अर्थात् पैर की गांठोंतक पूर दी गई ।४५-४६ । ध्वजा पताका तोरणों और नानाप्रकार के वैषोंसे सजाकर बाजारों की शोभा की गई | ४७|
नगरीकी सजावट हो चुकने पर मंत्रियोंने श्रीकृष्ण महाराजको विनयसे मस्तक झुकाकर भक्तिपूर्वक सूचित किया कि हे नाथ ! नगरीका शृङ्गार हो चुका ।४८। उनके वचन सुनकर नारायण बड़े प्रसन्न हुए और तेज बजनेवाले नगारा आदि नानाप्रकार के वादित्रों और नृत्य करती हुई गणिकाओं के साथ बड़े भारी उत्सवसे नगरीकी ओर चले । उनके साथ महाराज समुद्रविजय आदि बहुत से राजा थे । नगरमें प्रवेश करते समय अगणित स्त्री और पुरुष देखनेके लिये आये, स्त्रियोंने तो देखने की उतावली में अपने रूपकी चेष्टायें विपरीत प्रकारकी कर लीं । ४६-५१। मुहमें काजल लपेट लिया, आंखों में केसर आज ली, कानों में बिछुए और पैरों में कर्णफूल पहिन लिये । ५२ । इसप्रकार उस नगरी की स्त्रियां नाना प्रकारकी चेष्टायें करती हुई और हाथों का अधूरा किया हुआ काम छोड़कर बाहर गयीं । ५३ । बहुतसी स्त्रियां कामदेवका रूप देखकर और अपने चित्तमें सन्तुष्ट होकर आपस में इस प्रकार बातचीत करने लगीं - ५४ |
एक बोली, यदि कामदेव के समान सुन्दर रूपवाला पति नहीं मिला, तो अन्य काठके समान
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