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________________ २७६ को उनकी ओर धीरे धीरे चलाने लगा।३६। उसी समय श्रीकृष्णजी की दाहिनी अांख और दाहिनी भुजा फड़कने लगी, जो यथार्थमें इष्ट मिलापकी सूचना करनेवाली थी।४। इससे उन्होंने अपने || चरित्र सारथीसे कहा कि सम्पूर्ण सेनाके क्षीण हो जाने पर, वन्धुजनोंके नष्ट हो जाने पर और संग्राममें चतुर शत्रुके सम्मुख उपस्थित होने पर यह मेरी आंख और भुजा क्यों फड़कती है ? हे भाई, अब भला और क्या भद्र दिखलाई देगा ? भला अब और क्या प्राशा है । सारथी बोला, हे नाथ ! इसका फल यही है कि आप शत्रु को जीतकर और जय कीर्तिको प्राप्त करके अपनी प्यारी महाराणी रुक्मिणीको पावेंगे। इस विषयमें अब व्यर्थ ही विषाद न करें।४१-४४। इस प्रकार श्रीकृष्ण और सारथी सन्तुष्ट चित्तसे परस्पर वार्तालाप करते हुए शत्रु के समीप पहुँच गये ।४५। अपने शत्रु को बड़े भारी आडम्बर सहित देखकर श्रीकृष्णजीका हृदय स्नेहसे भर आया। अतएव वे उससे अतिशय मनोहर वचन वोले, हे विचक्षण शत्र ! मेरे वचन सुन, तू मेरी स्त्रीका हरण करने वाला बन्धुओंको मारनेवाला तथा और भी अनेक दुष्कर्मों का करनेवाला है, तो भी किया क्या जावे, तुझपर मेरा अन्तरंग स्नेह बढ़ता है। अतएव तू मेरी गुणवती भार्याको शीघ्र ही सौंप दे और मेरे पागेसे जीता हुअा कुशलपूर्वक चला जा ।४६-४६। यह सुनकर प्रद्युम्नकुमार हँसकर बोला, हे सुभटशिरोमणि ! यह कौनसा स्नेहका अवसर है । यह तो मारने काटनेका समय है ।५०। मैं तुम्हारे बन्धुत्रोंका हंता और तुम्हारी स्त्रीका हर्ता हूँ, ऐसे शत्रु पर भी यदि तुम स्नेह करते हो तो तुम्हारा शत्रु और कैसा होगा ।५१। यदि तुम युद्ध नहीं कर सकते हो, तो मुझसे कहो कि 'हे धीर वीर' ! मुझे स्त्रीकी भिक्षा प्रदान करो, अर्थात् मेरी भार्या सौंप दो ५२। ऐसे चुभनेवाले वचन सुनकर श्रीकृष्णजी क्रोधसे लाल पीले होगये। और धनुषको खींचकर अपने मदसे उद्धत हुए शत्रु पर टूट पड़े ।५३। बाणोंके समूहसे उन्होंने धरती, आकाश तथा दिशाओंको आच्छादित कर दिया ।५४। यह देखकर प्रद्युम्नकुमारने अपने अर्द्धचन्द्र चक्रसे श्रीकृष्ण Jain Educe linte rPrivate&Personal us On www.jainelibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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