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________________ होती थी कि, बहुतसे चन्द्रमानोंके बिम्ब कौतुकके वश इस मनोहर संग्रामरूपी यज्ञको देखनेके लिये आये हैं ।२६-२७। उस संग्राममें कोई एक वीर दूसरेसे बोला, तू व्यर्थ शंका मत कर। यह जो तुझे भय हो रहा है, तथा कँपकँपी छूट रही है, मो छोड़ दे और मुझपर खूब जोरसे प्रहार कर, तेरे केश बिखर रहे हैं तथा कपड़े धरतीपर पड़ रहे हैं, सो इन्हें सम्भाल ले, और हथियार धारण कर ले तब में संग्राम करूंगा, एक और कोई सुभट दूसरेसे बोला, हे वीर ! संग्राम करनेसे न तो म्वर्ग प्राप्त होता है, और न मोक्ष मिलता है। यदि तुम्हें यशके साधनेकी इच्छा हो, तो मुझसे सचसच कहो। मेरी समझमें तो तुम अपनी चन्द्रमुखी स्त्रीको छोड़कर सग्राममें व्यर्थ ही मत पड़ो।३०-३१। इस प्रकार उन परस्पर वार्तालाप करनेमें चतुर तथा मानी घमंडी राजाोंने प्रद्युम्नके मायामयी योद्धाओं के साथ बड़ा भयंकर संग्राम किया। उसमें उन धीर मानी और सजावट करनेमें चतुर वीरोंने विचित्र विचित्र प्रकारके अस्त्र शस्त्रोंसे अपने शत्रुओंको शीघ्र ही नष्ट कर डाला ।३२-३३। बड़े बड़े पहाड़ोंके समान हाथियों के पड़नेसे-धराशायी होनेसे तथा बड़े २ रथोंके टूटकर पड़जानेसे उस रणभूमिमें चलने फिरनेके लिये मार्ग नहीं रहा । वहां लोग बड़े कष्टसे संचार कर सकते थे।३४। रीछोंकी आवाजसे, और प्रांतोंके भूषण पहिनकर नाचते हुए बेतालोंसे वह रण बड़ा ही रौद्र और भयंकर हो गया।३५। आखिर इस महायुद्ध में प्रद्युम्नने अपनी मायासे पांडवादि सूरवीरोंको बलदेवादि सहित मार डाला ॥३६। यह सुनकर तथा देखकर श्रीकृष्णजी बड़े क्रोधित हुए और हाथीको छोड़कर रथपर सवार हो रणभूमिके सन्मुख हुए।३७। और अपने बाणोंसे लोकको आच्छादित करते हुए शत्रकी ओर चल पड़े। स्त्री और बन्धुजनोंके वियोगसे उत्तेजित होकर वे अपने शत्रुको बलपूर्वक नष्ट करनेकी इच्छा करने लगे।३८। पिताको विलक्षण क्रोध भावसे आता हुआ देखकर विनयवान प्रद्युम्नकुमार अपने रथ Jain Edicion international For Private & Personal Use Only www.juinelibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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