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________________ प्रपम्न ॥ चरित्र पुत्रकी याचना सुनकर रुक्मिणी विचार करने लगी कि यदि में अपने पतिसे (श्रीकृष्णसे) बिना पूछे, इसके साथ जाती हूँ, तो पतिव्रता कैसी और नहीं जाती हूँ, तो यह क्रोधित हो जावेगा, और रूस करके निश्चय है कि, फिर विद्याधरोंके देशमें चला जावेगा।८१-८२। अथवा मैं इतना विकल्प क्यों करती हूँ। मेरे स्वामी मुझपर कभी क्रोधित नहीं होंगे। अतएव अब तो पुत्रकी ही बात मानती हूँ। इसमें पीछे भला ही होगा।८३॥ ऐसा विचार करके रुक्मिणी ने कहा, अच्छा चलो; मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ। स्वीकारता सुनते ही प्रद्युम्नकुमार हर्षित होकर अपनो माताको उसी समय हाथोंसे आकाशमें ले गया। रुक्मिणीके आभूषणोंकी प्रभा के तेज से दिशायें कपिल रंगकी पीली पीली हो गई।८४-८५। रुक्मिणीको हाथसे पकड़े हुए प्रद्युम्नकुमार यादवोंकी राज सभाके ऊपर ठहर गया और बलदेवजी तथा कृष्णजीके समक्षमें बोला, हे यादवों ! हे भोजवंशियों ! हे पांडवों ! और जो २ शूरवीर तथा सुभट हों, वे सब यदि तुम अच्छे कुलसे उत्पन्न हुए हो, और यदि लड़ाईमें विजय पाई, तो सावधान होकर मेरे वचन सुनो । भीष्मराजकी पुत्री और श्रीकृष्णजीकी प्यारी साध्वी स्त्रीको जो कि रुक्मिणीके नामसे सारी पृथ्वीमें प्रसिद्ध है, जिसे श्रीकृष्ण तथा बलदेवने बेचारे दीन दमघोषके पुत्रको अर्थात् शिशुपालको लड़ाई में मारकर ले आये थे, और जिसके नीलकमलके समान नेत्र हैं, मैं विद्याधर का वीर पुत्र तुम लोगोंके साम्हने लिये जाता हूँ।८६-११। यदि मैं अकेला वीर रुक्मिणीको हर ले जाऊँ तो, फिर तुम सबके जीवनसे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् तुम्हारा जीना निरर्थक है ।९२। यदि तुम सब लोगोंमें कुछ अद्भुत शक्ति हो, तो मेरे पंजेमें फँसी हुई रुक्मिणीको छुड़ायो । हे उत्तम शूरवीरों तुम सब इकठ्ठ होकर प्रयत्न करो निश्चय समझो कि तुमसे युद्ध किये बिना मैं नहीं जाऊंगा।।३. ९४। जब पहले तुम्हारे साथ युद्ध कर लूँगा, तब श्रीकृष्णजीकी भामिनीको विद्याधरोंके नगरमें ले Jain Educh international For Privale & Personal Use Only www.jabrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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