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प्रयम्न
धारण करके माताके पास जाकर उसके चरणोंको विनयपूर्वक नमस्कार किया।
इस बीचमें अचरजसे व्याकुल हुई रुक्मिणी महापराक्रमके धारण करनेवाले पुत्रको देखकर || चरित्र बोली हे पुत्र ! तू मुझसे नारदमुनिकी बात कह कि, वे मेरे बिना कारण के बन्धु कहां चले गये ? कुमारने कहा, माता ! नारदजी विद्याधरोंके पर्वतसे अर्थात् विजयागिरीसे मेरे ही साथ आये हैं और इससमय द्वारिकानगरीके बाहिर अाकाशमें विमानपर विराजमान होरहे हैं। उनके साथ तुम्हारी मृग नयनी बहु भी है जिसे मैं उनके पास छोड़ आया हूँ ॥५४-५८। यह सुनकर रुक्मिणी अपने गुणवान पुत्रसे वोली, बेटा ! तूने बहू कहांसे पा ली सो भी तो मुझसे कह ।५९। पूछने पर कामकुमार अपनी माता को सुखी करनेके लिये बोला, माता ! मैं इसका वृत्तांत तुम्हारे साम्हने संक्षेपसे कहता हूँ;-६०। दुर्योधन राजाने श्रीकृष्णमहाराजकी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिये अपनी उदधिकुमारी नामकी कन्याको भानुकुमारसे विवाह करनेको भेजी थी, सो उसे मैंने मार्गमें ही भिल्ल का रूप धारण करके हरण कर लिया है। वही उदधिकुमारी सुन्दरी नारदजीके साथ विमानमें बैठी है । इसके पश्चात् कुमारने भानुकुमारका तिरस्कार, सत्यभामाके बगीचेका तथा वनका विनाश, रथका तोड़ना, बावड़ीका शोषण कर लेना, सुगन्धित पुष्पोंको आकके पुष्प बना देना, मेंढ़ेसे वसुदेवजीकी टांग तुड़ाना, और भोजन वमन करके सत्यभामाकी विडम्बना, आदि सब लीलायें भी अपनी माताको सुना दी। पुत्रको सुन्दरी बहू मिलनेकी तथा शत्रका (सत्यभामाका) खूब तिरस्कार होनेकी सब बात सुनकर रुक्मिणी बहुत प्रसन्न हुई। और पुत्रसे बोली, वेटा मुझे नारदमुनिके देखनेकी बहुत इच्छा है, अतएव उन अकारण बन्धु मुनिको जल्द ही दिखलादे, अर्थात् बुलादे ।६१-६५। यह सुनकर प्रद्युम्नने कहा, मैं उन्हें कैसे ले
आऊँ क्योंकि मैं अभी तक कुटुम्बी जनोंसे नहीं मिला हूँ। जबतक में सबसे नहीं मिला हूँ, तबतक उनके पास नहीं जाऊँगा।६६। रुक्मिणी बोली, यदि ऐसा है तो अपने पितासे जाकर मिल था।
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