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________________ प्रद्यम्न २५५ 1 का कारण निवेदन करो | ८ | तब वे सब बोलीं, आपने पहले सभा के बीच में बलदेवजीकी साक्षीपूर्वक कोई प्रण किया था । सो आज उसीका स्मरण करके सत्यभामाने हमको भेजा है । हम आपकी चोटी लेने के लिये आई हैं। आप देवें या न देवें, इसमें आपकी इच्छा है । हमारा जरा भी दोष नहीं है । ९-१०। रुक्मिणीने यह सुनकर कहा, अच्छा किया, जो तुम आईं। लो, चोटी ले जाओ । हे नाई ! तू इधर, व्यर्थ भय मत कर । हे स्त्रियोंसे घिरे हुए नाई ! ले मेरी मनोहर वेणी काट ले ।११-१२। यह सुनकर स्त्रियोंने हर्षित होकर दही, दूर्वा, अक्षत आदि मंगलीक पदार्थों से युक्त चौकीको आगे रख दी और नाई अपना छुरा निकाल कर समीप याया । सो बड़े आनन्दके साथ रुक्मिणी के आगे बैठा ।१३-१४ | यह देख मायामई रुक्मिणी अपना मस्तक उघाड़ कर बोली, लो इसमें से जितने केश चाहिये, लो । डरो मत । १५ । नाई बोला, माता ! इसमें मेरा दोष नहीं है । मुझे लाचार होकर यह करना पड़ता है । रुक्मिणी बोली, सच है - तेरा जरा भी दोष नहीं है । तू निर्भय होकर मेरी सारी कोंको मूड़कर ले ले। यह सुनते ही नाऊ रुक्मिणीके सिरपर शीघ्रता से छुरा चलाने लगा और स्त्रियां चौकीको ले करके गीत गाने लगीं, तथा बड़ा भारी उत्सव मनाने लगीं । उसी समय ऐसी लीला हुई कि नाऊने अपनी नाक काटली । १६-१८ । फिर अपनी हाथ की अंगुलियां कान, वेणी तथा इसी प्रकार से दूसरी स्त्रियोंकी भी नाक अंगुली आदि काट लीं। प्रद्युम्नकी मायासे वे सब एक दूसरे की ओर कौतुक से देखती थीं, परन्तु उनके चित्तपर ऐसी मूर्खता छा गई थी कि, न तो वे स्त्रियां जानतीं थीं कि, हमारे नाक कट गये हैं, और न वह नाऊ ही जानता था । १६-२० । 1 इसके पश्चात् वे सब स्त्रियां तथा नाई वगैरह पुरुष आपस में रुक्मिणीको प्रशंसा करने लगे कि अहा ! इसके वचनों में कितनी कोमलता है, कैसी सुजनता है और कैसी सुन्दर वाक्यता है। सचमुच ही यह गुणों की पवित्र घर है । रुक्मिणी के समान न तो कोई स्त्री हुई है और न होगी । २१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only चरित्र www.inelibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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