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प्रधान
क्षुल्लक कैसे हो सकता है ।६५। इस प्रकार बहुत समय तक सोच विचार करके रुक्मिणी महाराणी शीलरूपी भूषणको धारण करनेवाले क्षुल्लकसे बड़ी विनयके साथ रमणीय वचन बोली-महाराज ! मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ। कृपा करके आप अपने माता पिता तथा भाइयोंकी कथा कहकर मेरे कानोंको सुखी करो।६६-६७। रुक्मिणीके वचन सुनकर ब्रह्मचारी वेषधारी बोला, हे उत्तम श्रा. विके ! जिन्होंने अपने घरको छोड़ दिया है, यतियोंका व्रत धारण किया है, सम्पूर्ण इच्छायें छोड़ दी हैं और रागद्वेष को तज दिया है वे समतासे शोभित होने वाले मुनि यति तथा ब्रह्मचारी अपनी जाति कुल तथा भाई बन्धुओंकी कथा कैसे कह सकते हैं ? १६८-६६। और हे माता ! तू तो सम्यक्त्व की धारण करने वाली है तुझे मुनियोंसे कुल जाति सम्बन्धी कुशलता का प्रश्न नहीं करना चाहिये ७०। क्या तूने कभी जिन धर्म में जाति तथा कुलसे हीन पुरुष हुए सुने हैं, जो हे माता मुझसे ऐसा प्रश्न करती है ।७१। यदि मैं ऊंचे कुलका हुआ तो तू क्या करेगी और नीचेका हुआ, तो तू क्या करेगी, नीच और ऊंच होनेसे तेरा क्या उपकार अपकार होगा ७२। इतने पर भी हे रुक्मिणी तू मूढ़ताके वश व्यर्थही मुझसे पूछती है, तो सुन-हमारा श्रीकृष्ण नारायण तो पिता है और तू माता है ।७३। क्योंकि श्रावक ही यति मुनियोंके माता पिता कहे गये हैं। अतएव अब कह कि यति मुनियोंके भाई बन्धुओंकी कथा क्या पूछती है ।७४।
इस प्रकार सन्तुष्टचित्त होकर जब रुक्मिणी और क्षुल्लकवेषधारी प्रद्युम्न बातचीत कर रहे थे, उस समय सत्यभामाको पूर्वमें की हुई उस प्रतिज्ञाकी याद आई, जो पहले रुक्मिणी और सत्यभामा के बीचमें हुई थी, और जिसे सब लोग जानते थे। इसलिये उसने जल्दी ही नाईके सहित बहुतसी दासियोंको रुक्मिणीके घर उसकी चोटी लेनेके लिये भेजा, सो वे मणियोंकी थाली वगैरह लिये हुए गाती हुई आई। जब वे सब रुक्मिणीके महलकी गलीमें आकर पहुँची, तब उन्हें एकाएक आई
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