________________
चरित्र
२४८
क्षुल्लक वेष धारण करनेवाले उस पुरुषको आता हुआ देखकर जिनधर्मकी प्रभावना करनेवाली रुक्मिणी अपने आसन से उठ बैठी, और सन्मुख जाकर उसने पृथ्वीपर मस्तक टेककर उसके चरण कमलको नमस्कार किया तथा इच्छाकार किया। उसकी महान विनयको देखकर ब्रह्मचारी क्षुल्लकने कहा, हे माता ! भवभवमें तुझे दर्शनकी शुद्धि प्राप्त हो।-११। इसके पश्चात् वह मूर्ख चल्लक रुकिमणीके दिये हुए सिंहासनपर जो कि अपने रत्नोंकी किरणोंसे पृथ्वीको उद्योतरूप कर रहा था, बैठ गया ।१२। रुक्मिणी खड़ी रही ! ऊंचे तथा विशाल स्तनोंके भारसे उसकी क्षीण कटि पीड़ित हो रही थी। उसे बड़ी देर तक खड़ी रहनेसे दुःखी देखकर क्षल्लकने इसप्रकार मनोहर वचन कहे कि, माता! यहां मेरे आगे बैठ जा ।१३-१४। उसके इसप्रकार कहनेपर धर्म के स्नेहसे परिपूरित रुक्मिणी बैठ गयी
और सम्यक्त्वसम्बन्धी चर्चा करने लगी।१५। एक दूसरेपर प्रीति करनेवाले, जिनशासनकी भावना भानेवाले, मीठीवाणी बोलनेवाले, चतुर, तथा सब प्रकारकी विकारदृष्टि से रहित वे दोनों कुछ समय तक धर्मसम्बन्धी वार्तालाप करते रहे । इतनेमें क्षुल्लक वेषधारीने प्रीतिपूर्वक कहा, उत्कृष्ट प्राशयकी धारण करनेवाली हे रुक्मिणी देवी ! में अनेक तीर्थ करके और बहुतसे देशोंको देखकरके सम्यक्त्वके विषयमें तेरी सुप्रसिद्धि सुनकर यहां आया हूँ, परन्तु पहले जैसी तेरी प्रशंसा सुनी थी वैसी तू इससमय नहीं दिखती है।१६-१६। मैं रास्ता चलनेके श्रमसे बहुत ही थक गया हूँ, दुःखी हूँ, परंतु तूने पांव धोनेके लिये जरासा गरम पानी भी नहीं दिया!।२०। और न भोजनकी ही कुछ चिंता की। विवेकसे रहित होकर तूने धर्मचर्चा करना शुरू कर दी है।२१। मल्लकका वचन सुनकर रुक्मिणी विचारने लगी, सचमुच ही में विवेक रहित हो गयी हूं। ये महाराज जो कहते हैं, सो सर्वथा सच है ।२२। यह सोचकर उसने अपने सेवकोंसे कहा, जल्दी थोड़ा गरम जल ले प्रायो, जिससे महाराजके चरणोंको धो दूं।२३॥ सुनते ही सेवक लोग जल लेनेको गये, परन्तु वहां प्रद्युम्नने अपनी विद्याकी मायासे अग्निको स्तंभित
Jain Edublon international
For Privale & Personal Use Only
www.jainelibrary.org