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________________ प्रद्युम्न वरित २४६ कर दी थी, जिससे पानी ठंडा हो गया, और अग्नि जली नहीं। फिर क्षल्लकजी ने कहा, गरम पानी नहीं है, तो न सही, परन्तु में भूखसे पीड़ित हूँ। इससे यदि तेरे यहां भोजन है, तो ला जल्दीसे करादे । मैं क्षणभर नहीं बैठ सकता हूँ। बोल, मैं भूखके मारे क्या करूं? ॥२४-२६। में प्राणहीन हुअा जाता हूँ । ला ! मुझे जल्द ही भोजन दे दे । यह सुनकर रुक्मिणी स्वयं ही शीघ्रता से उठी, और अपने हाथसे अग्नि चैतन्य करनेमें तत्पर हुई। परन्तु वह तो स्तम्भित कर दी गई थी, कैसे जले ? रुक्मिणी धुएं के मारे अाकुल व्याकुल हो गई, बाल बिखर गये, पर आग नहीं जली। इतना होनेपर भी हृदयमें जिनधर्मकी वासना होनेके कारण रुक्मिणी का चित्त जरा भी मैला न हुआ।२७२६। उसे आग चैतन्य करनेमें व्याकुल देखकर चल्लक महाराजने कहा, माता अब गरम जलका प्रपंच रहने दे। यदि तेरे घरमें कुछ बनाया पक्वान्न हो, तो वही मुझे दे दे। क्योंकि भूखके कारण मर जाने पर तेरे दिये हुए भोजनसे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? इस प्रकार भूखसे व्याकुल होकर वह चिल्लाने लगा।३०-३२। उसे सुनकर जिन बर्तनमें पक्वान्न रक्खा हुआ था, रुक्मिणी उन्हें देखने लगी। परन्तु कुछ भी प्राप्त न हुआ । प्रद्युम्नने अपनी विद्याके प्रभावसे सब कुछ लोप कर दिया था ।३३। सब जगह देख चुकनेपर रुक्मिणीको एक बर्तन में दश लड्डु, मिल गये, जो श्रीकृष्णमहाराजके लिये रक्खे हुये थे। उन्हें कृष्णजी बड़ी कठिनाईसे एक खा सकते थे । लड्ड देखकर रुक्मिणी चिंता करने लगी कि, इस दुबले पतले ब्रह्मचारीको यदि ये मोदक दे देती हूँ, तो यह अवश्य ही मर जावेगा, और हत्या मुझे लगेगी। और घरमें दूसरा कोई भोजनका पदार्थ दिखता नहीं है, तथा ये भूखसे मरा जा रहा है, सो यदि लड्डू नहीं देती हूँ, तो यह गालियाँ देगा।३४-३७। यह सोचकर उसने डरते २ चुल्लकके अासनपर एक थाली रख दी और उनके हाथ धुलवाये । शल्लक शीघ्रतासे हाथ धोकर बोले,-लाओ, जल्दी परोसो में ठहर नहीं सकता हूँ॥३८-३६। रुक्मिणी एक और चिन्ता में पड़ी Jain Education intemato For Private & Personal Use Only www.jaintbrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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