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का एक छोटासा गोवा भिक्षापात्र तथा कमंडलु लिये हुए था दीन था और जिसके पैर तथा हाथों गुलियाँ फैली हुई थीं। इसप्रकार के ब्रह्मचारी क्षुल्लकका रूप बनाकर वह अपनी माता के महल में घुसा ।६१-९५। वह महल जहां तहां नानाप्रकारकी मॅणियोंसे जड़ा हुआ बड़ा ही सुन्दर था । भेरी दुदुभी शंख मृदंग पटह वीणा वाँसुरी ताल झल्लरी पणव (ढोल) आदि बाजोंके नादसे सब ओर से शब्दायमान हो रहा था । ६६-६७। चन्दन तथा कालागुरुकी धूपके धू एसे व्याप्त होकर सारे नगर काशको सुगंधित कर रहा था । ऐसे महल में प्रवेश करके चुल्लकने जिनमंदिर के आगे एक उत्तम कुशासनपर बैठी हुई रुक्मिणी देवीको देखा, जिसे चारों ओर से अनेक स्त्रियां घेरे हुए थीं जो अनेक व्यापारोंमें लगी हुई थी जो सम्पूर्ण गुणोंवाली थी नील कमल के समान सुन्दर शरीरको धारण करती थी जिसका मुख पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान सुन्दर था बन्धूकके (दुपहरिया के) फूल तथा पकी हुई कुन्दरू के समान जिसके होठ थे फूले हुए कुन्दके समान जिसके दंतोंकी पंक्ति थी, कमल के समान जिसके हाथ तथा पैर थे, और जो चमकते हुये सुवर्णं तथा रत्नोंके मनोहर ग्राभूषण पहने थी । इस प्रकार सम्पूर्ण लक्षणोंकी धारण करने वाली और सम्पूर्ण अवयवों से सुन्दर उस महाराणी को देखकर प्रद्युम्न कुमार सोचने लगा क्या यह इन्द्राणी है ? अथवा कीर्ति, सरस्वती, सूर्य की स्त्री, महादेवकी पार्वती, धरणेन्द्रकी इन्द्राणी, इनमें से कोई है ? मैं तो समझता हूं जितनी देवांगनायें हैं, वे सब इसके रूपसे जीती गई हैं ? अथवा ब्रह्माजी ने सारे जगतकी स्त्रियों के रूपका सार लेकर श्रीकृष्णजी के सन्तोष के लिये यह दिव्य मूर्ति बनाई है। ऐसा मैं निश्चयपूर्वक समझता हूँ । ९८-७०६ । रुक्मिणी माता को जिनेन्द्र भगवान के मन्दिरके श्रागे मंडपके नीचे विराजमान देखकर प्रद्युम्न कुमारने संतुष्टचित्त होकर मन ही मन नमस्कार किया। सो ठीक ही है, उत्तम तथा पूज्य वंशमें उत्पन्न हुआ ऐसा कौन है, जो पूज्य पुरुषों में विनयवान होकर प्रीति नहीं करता है अर्थात् सभी करते हैं । ७-८ ॥
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पद्यम्न
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चरित्र
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