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________________ चरित्र प्रान २४ की स्वामिनी-पट्टरानी है । इतने पर भी तू इतनी कृपणता क्यों करती है ? मैं एक स्वल्पभोजी अर्थात् बहुत कम खानेवाला ही जब तुझसे तृप्त न हुअा, तो हे दुष्टनी ! दूसरे लोग तेरेसे कैसे प्रीतिको प्राप्त होंगे।७०-८०। मैं समझता हूँ कि तेरे जैसी कृपणाका अन्न मेरे उदरमें ठहरेगा ही नहीं, अतएव हे पापिनी मूर्खा ! अपना यह सब अन्न तू ले।८। ऐसा कहकर उस विचित्र विप्रने अपना पेटका सब का सब अन्न सत्यभामा आदिके सामने वमन कर दिया, जिससे सारा आँगन और घर भरगया। उसमें सत्यभामा, सबके सब विप्र और सारी स्त्रियां डूब गयीं। चित्रसारी, चित्राम, वस्त्रोंके रखनेकी पेटियां शीतकी रक्षा करने वाले वस्त्र, रूईके गद्द, और अधिक क्या कहा जावे, सारा घरका घर विपके वमन में (उल्टीमें) मग्न हो गया।८२.८५। तत्पश्चात् सब जल हरण करके अर्थात् पीकरके प्रद्युम्नकुमार वहां से निकल पड़ा। सो गलीके बाहर आकर चिन्ता करने लगा कि अब में कहां जाऊँ ? फिर सोचा, चलो, यह मार्ग जहां को गया हो वहीं चलें। थोड़ी दूर आगे चलकर प्रद्युम्नकुमारने एक सुन्दर मन्दिर देखा, जो हाथी, घोड़ों और मनुध्योंसे खचा खच भरा था तथा जिसमें बड़ा भारी उत्सव हो रहा था। उसे देखकर उसने अपनी विद्या से पूछा कि यह सुन्दर महल किसका है, सो मुझे बतला । विद्याने कहा, हे नाथ ! यह तुम्हारी माता रुक्मिणीका उत्सव पूर्ण मन्दिर है । यह सुनकर कामकुमार बहुत प्रसन्न हुआ।८६.६०। उसने उसी समय एक क्षुल्लकका वेष धारण कर लिया, जिसका शरीर दुबला पतला तथा अतिशय कुरूप था, मुह दुर्गन्धयुक्त था, दांत सफेद थे मिर छोटा था नेत्र बुरे थे शरीर सूखा हुआ था जो कुलक्षणी था जिसके पैर बड़े थे हाथ छोटे थे जो बहुत ही काला था, नाक तथा अंगुलियां टेढ़ी मेढ़ी थीं जांघे सूखी हुई देखनेमें बुरी मालूम होती थीं स्फिच अर्थात् कमरके मांसपिंड (कूले) तुचके हुए थे पीठ और जानु भग्न थीं पेट बड़ा था जो हाथमें दंड और नारियलकी खोपरी लिये हुए था लंगोटी लगाये था कपड़े - ___Jain Educanam intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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