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________________ प्रधम्न चरित्र २४५ विप्रदेव उसे भी शीघ्रतासे गिलंकृत करने लगे।६३-६४। अनेकप्रकारके भूषणोंसे लदी हुई, चलते समय नूपुरोंका मनोहर शब्द करती हुयीं, तथा एक दूसरेके नितम्बादि अंगोंको छीलती हुयीं वे यौवनवती स्त्रियां विप्रकुमारको बड़े कौतुक से मंडक (फुलका) लड्डु , पूर्व, बड़े, घेवर, फैनी, खीर, प्रचुर (चूरमा ?), खाजा, लापसी, भात, मूगकी दाल, नानाप्रकारके शाक, घी, तेल, दूध, दही, तक (छाछ) आदि अच्छे २ पदार्थ परोसने लगीं। सत्यभामाके घरमें जितना पक्वान्न था, उन स्त्रियोंने वह सब परोस दिया, और विप्रने वह सब पेट में रख लिया ।६५.६९। आखिर सत्यभामाके घरमें जो चीजें पूरी तैयार नहीं हुई, थीं, तथा जो पकी हुई नहीं थी, जैसे मूग, चांवल, आटा, धान, जौ, गेहूँ, उड़द की दाल, आदि वे भी सब परोस दी गई, और महाराज उन्हें भक्षण कर गये।७०-७१। इसके पश्चात् हाथी घोड़ोंके लिये जो यवागू (दलिया) बनाई गयी थी, वह भी परोसी गयी। सो उस भूखसे विकल हुए विप्रने वह भी उदरस्थ करली ।७२।। सत्यभामाके घरमें इस बातका बड़ा भारी कोलाहल मच गया कि, एक कोई बड़ा भारी प्रेत विप्रका रूप धारण करके आया है। सत्यभामाके घर पुत्रके विवाहके लिये जितना भोजन तैयार हुआ था, वह सवका सब भक्षण कर गया है । न जाने हररोज वह क्या खाकर जीता होगा।७३ ७४। इस प्रकार कहती हुई अनेक स्त्रियां एक दूसरेके शरीरको छीलती हुयीं तथा नितम्बों और स्तनोंको पीड़ित करती हुयीं कौतुक देखने के लिये दौड़ी आयीं और उसे बड़ी उत्कंठासे देखने लगीं। तब तक वह विप्र जो कुछ परोसा गया था, उसको भी भक्षण करके, 'मुझे जल्द भोजन लायो,' इस प्रकार जोर जोरसे बोलने लगा। ये लोग मेरी थालीमें अन्न क्यों नहीं परोसते हैं । अथवा इसमें तुम्हारा क्या दोष है। सत्यभामा ही बड़ी दरिद्रा और कंजूस है ।७५-७७॥ हे सत्यभामा मेरे मनोहर वचन सुन । देख भानुकुमार सरीखा तेरा पुत्र है, नारायण तेरा पति है, विद्याधरोंका राजा तेरा पिता है और समस्त स्त्रियों - For Private & Personal Use Only www.Melibrary.org Jain Edullin internal
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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