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________________ चरित्र हुए हैं। फिर बतला, तू इन्हें क्यों नहीं रोकती है ? जान पड़ता है, तूने ही इन मूर्ख विप्रोंको मुझे मारनेके लिये उठाया है। नहीं तो मुझ विप्रके मारनेका इन्हें क्या अधिकार है ? ५०-५२। तब सत्यभामाने कहा, मैंने सब चरित्र जान लिया है । और मैंने यह भी अच्छी तरह जान लिया है कि किसने किसको मारा है ।५३॥ हे द्विजनायक ! अब तुम मेरे साम्हने ही भोजन करलो। अरे सेवकों ! इन्हें यहां मेरे साम्हने जल्द ही भोजन करा दो ५४। यह सुनते ही नौकर लोगोंने तत्काल ही बड़े आदरके साथ वहां पर अासन स्थापित कर दिया और उसपर सोनेके उत्तमोतम बर्तन रख दिये जब तक विप्रकुमार वेष धारण करनेवाला प्रद्युम्न हाथ धोकरके श्रासनपरबैठा तब तक परोसनेवालोंने नानाप्रकारके पक्वान्न और स्वादिष्ट फल आदि लाकर परोस दिये । उस समय सत्यभामाने कहा, हे, द्विज ! अमृत करो अर्थात् भोजन करो ।५५-५७। प्रद्युम्न बोला हे विचक्षण माता ! जब तक मेरी तृप्ति न हो, तब तक मुझे भोजन परोसना चाहिये । अर्थात् ऐसा न हो कि, मेरा पेट भरने न पावै और तू भोजन देना वन्द करदे ।५८। सत्यभामाने कहा है द्विजोत्तम ! भोजन करो में इस समय तुम्हारी आकंठ तप्ति न होने तक अर्थात जबतक तुम्हारा पेट गलेतक न भर जावे तब तक परोसाऊँगी।५। ऐमा सुनते ही प्रद्युम्न जिस तरह भूखा हाथी खाता है, उस तरह बड़े बड़े कवल जल्दी २ बेसिलसिले खाने लगा। क्षुधा की आकुलतासे “लामो ! लायो ! परोसो ! परोसो” कहकर जो कुछ बर्तन में परोसा जाता था, वह उसे चट निगल जाता था, वर्तनमें रह ही नहीं पाता था ।६०-६१। इधर सेवक लोग सन्तुष्ट होकर उत्कृष्ट पात्रमें नाना प्रकार के भोजन ला लाकर परोसते जाते थे। उनके परोसने का कोई क्रम नहीं था। आगे पीछे एक साथ जो पक्वान्न उनके हाथमें पड़ता था, वह परोस जाते थे ।६२। उस समय भानुकुमारके विवाहमें यादवोंकी स्त्रियां निमन्त्रणमें आई थीं, वे भी कौतुकके वशसे नानाप्रकारका भोजन ला लाकर विप्रकुमारको विनोदके साथ परोसने लगीं। सो Jain Educat international For Privale & Personal Use Only www.jainabrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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