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________________ प्रधान चरित्र २४३ उसमें धर्म कहा जावे, तो वह विलकुल असत्य होगा। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ।३३३६। जिसमें नहीं गमन करने योग्य स्त्रियोंमें गमन (सहवास) करने योग्य बतलाया है, दासी श्रादिका दान देना कहा है, और नहीं पीने योग्य वस्तुओंको पीने योग्य बतलाया है वह धर्म कैसे हो सकता है ? इत्यादि नानाप्रकारके विरोधी वाक्य जिस वेदमें कहे हैं, हे विष ! कहो कि उसे कैसे प्रमाण मानेंगे ।३७-३८१ विप्रकुमार के उक्त वचन सुनकर वे सब विप्र अतिशय कुपित हुए और इस प्रकार कहते हुए मारनेके लिये तैयार हो गये, कि इस श्रुतिस्मृतिशास्त्रोंसे परांगमुख हुए पापीको मार डालो। यह विप्रों की निन्दा करनेवाला दुष्ट है । इसके मारनेमें जरा भी दोष नहीं है ।३९-४०। ऐसा कहकर वे अपनी भौंहोंके मध्यभाग को क्रोधसे कम्पित करते हुए मारनेको झपटे । विप्रकुमारने जब विप्रोंको एकाएक मारनेके लिये उद्यत देखा, तब अपनी विद्याको छोड़कर उसने उन विप्रोंको अापसमें ही लड़ाना शुरू कर दिया । क्रोधित हो होकर वे एक दूसरेके शरीरपर घात करने लगे।४१-४२। भुजाओं तथा मुक्कियोंके घातसे और मस्तक मस्तकोंके भिड़नेसे थोड़ी हो देर में उनका शरीर पसीनामय हो गया ।४३। परस्परकी लड़ाई में वे गिरने लगे, खिसकने लगे, क्रोधित होकर दौड़ने लगे, और लोहू लुहान होकर रोने लगे। इसप्रकार मुष्टिघात से अतिशय भयंकर युद्ध करके वे सबके सब विप्र विस्मित और खेद खिन्न हो गये। कितने ही तो मूर्छायुक्त होकर पृथ्वीपर सो गये ।४४-४६।। यह कौतुक देखकर सत्यभामा हँसती हुई बोली, अरे विप्रों! तुम व्यर्थ ही क्यों लड़ रहे हो ? मैं तुम सबको ही भोजन दूगी,फिर मेरे ही साम्हने तुम क्यों युद्ध करते हो? इसके पश्चात् सत्यभामा उसी प्रकार हँसती हुई उस विप्रकुमारसे बोली, और हे बटुक ! तू भी इन विप्रोंसे क्यों लड़ता है ।४७ ४८। यह सुनते ही बटुक अपने आसनसे उठकर समीप आ गया, और बोला, सत्यभामा ! बस, अब मैंने तेरे मनका दुष्ट विचार जान लिया। मैं यहां अकेला हूँ और ये अगणित विप्र मुझे मारनेको उद्यत Jain Educate temational For Privale & Personal Use Only www.jain Lary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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