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________________ प्रधम्न चरित्र २२६ है, अनेक दर्पणोंके कारण जिसमें उद्योत हो रहा है और जिसपर मनोहर पताकायें उड़ रही हैं उसे देखकर प्रद्युम्नकुमार विस्मित हो रहे । उन्होंने अपनी कर्णपिशाची विद्यासे पूछा कि, यह रथ किसका है ? ।२८-३०। वह बोली, भानुकुमारके विवाहके मंगल कलशोंसे भरा हुआ और काहल, मृदंग, तथा भेरीके नादसे शब्दायमान होता हा यह उत्तम रथ कुम्भकारके (कुम्हारके) घरसे कलश लेकर स्त्रीजनोंके सहित सत्यभामाके घरपर जा रहा है, जो कि तुम्हारी माताकी सौत है। इसके विषयमें तुम्हारी इच्छा हो, सो करो।३१-३३॥ विद्याके वचनोंसे सब बातोंको विशेषतापूर्वक जानकर तथा रथकी स्वामिनीको अपनी माताकी वैरिणी समझकर प्रद्युम्नकुमारने तत्काल ही एक विकृत प्राकृति बनाई । अर्थात् विद्याके बलसे उन्होंने एक विचित्र रथ बनाकर जिसमें कि गधा और ऊंट जुते हुए थे, उसे सम्पूर्ण लोगोंको क्षोभित करते हुए और अगणित जनोंको हँसाते हुए सत्यभामाके रथकी ओर चलाया और देखते २ उस रथको चूर्ण कर डाला, कलशोंको पटक दिया और तोरण को तोड़ डाला। आगे वह रथ यहां वहां भागता हुआ भानुकुमारके नौकरोंको कुचलने लगा। उसने स्त्रियों को गिराकर कान काट डाले, मुंहके दांत गिरा दिये, कुहनी छील डाली, पैरोंमें चोट पहुँचाई और कपड़े फाड़ डाले जिससे वे उघाड़ी होगई ।३४.३८। उनके मुखमेंसे जहां गीत निकलते थे, वहां विलाप निकलने लगा। ऐसी लीला करके आगे प्रद्युम्नकुमार गधे और ऊंटोंसे हास्यकारी शब्द कराता हुआ, डाँस और मच्छरोंको छोड़ता हुअा, ऊँचा मुख किये हुए अपने रथको गली २ में फिराने लगा ।३९-४०। उसे देखकर नगरीके मनुष्य परस्पर इस प्रकार बातचीत करने लगे.-यह कोई मनुष्य है. अथवा विद्याधर है ? नागेन्द्र है, अथवा दैत्येन्द्र है ? या कोई इन्द्रजाल ही है ? हम यह स्वप्न देख रहे हैं, अथवा जागते हुए ही कोई माया देख रहे हैं।४१-४२। जो श्रीकृष्णमहाराजकी नगरीमें इसप्रकार निर्भय होकर क्रीड़ा करता फिरता है, अवश्य ही वह कोई अल्प स्वल्प शक्तिका धारक नहीं होगा। VE Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jalary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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