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चरित्र
कहो कि तुम जो इतने निष्ठुर और विवेकहीन होगये हो, सो इसमें तुम्हारा ही दोष है, अथवा तुम्हारे प्रद्युम्न देशका ही दोष है ? सौराष्ट्र देशके लोग निष्ठुर और दुष्टचित्त होते हैं, ऐसा जो कहते हैं २२६ ॥ सो यहां प्रत्यक्ष दिखलाई देता है ।८३-८५। जिन्हें इतना भी ज्ञान नहीं है कि ये पुरुष कैसा
है, और ये दूसरा पुरुष भी कैसा है, तथा जो स्थान और मान सम्मानको नहीं जानते, उन मूर्ख पुरुषों के जीवनसे क्या, मेरे ये घोड़े केवल घास खाने वाले हैं । सो इन्हें यहां पर चर लेने दो। इस बगीचे में जो यह कृत्रिम छोटीसी नदी (सारणी) है, इसके चारों तरफ ही ये चरेंगे। यदि तुम्हारे चित्तमें विश्वास न हो, तो लो मैं अपनी रमणीय अंगूठी तुम्हें देता हूँ सो रख लो। मैंने इन घोड़ोंको पहले न्याय नीतिकी विधि सिखलाई है सो ये बगीचेके फल पुष्पादिकों को कदापि भक्षण न करेंगे ८६. ८६। उसके वचन सुनकर और अंगूठी लेकर वे वनके रखवाले बोले; हे हयपालक ! तुम अपने घोड़ों को इस नदीके आस पास चरा लो परन्तु स्मरण रखो कि यदि इन्होंने बगीचेके फल पत्रादि भक्षण किये, तो तुम्हारी यह अंगूठी चली जावेगी। फिर नहीं मिलेगी।६०-६१। इस बातको स्वीकार करके प्रद्युम्नने उन घोड़ोंको चरनेके लिये छोड़ दिया। सो जबतक वनके रक्षक देखते रहे तब तक वे न्याय मार्गसे अर्थात् जहां कहा था वहीं चरते रहे। परन्तु जब वनके रखवारे यह देखकर कि ये केवल घास ही चर रहे हैं, अंगूठी लेकर धीरे धीरे अपने घर खिसक गये, तब घोड़े स्वेच्छाचारी बनकर उस सारे वनको विद्याके योगसे भक्षण करने लगे। उन्होंने क्षणभरमें वृक्षोंको जड़से उखाड़कर नष्ट कर दिये,
और वहांकी भूमिको ऐसी सपाट कर दी कि, मानों पहले वहां कोई बगीचा ही नहीं था ।९२-९५। प्रद्युम्नकुमारके घोड़ोंने उस नन्दनवनके समान वनको नष्ट करके मैदान कर दिया और उसमें जो वाटिका थी, उसको भी साफ करदी ।।६। इसके सिवाय वहां पर जो सत्यभामाके बनवाये हुए तालाब थे, उनको भी घोड़ोंने शोषण करके जलरहित मरुस्थलके समान कर दिय ।।७।
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