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चरित्र
अतएव आपको मेरा नमस्कार हो” ॥२८-२६॥ इस तरह स्तुति करके नेमिनाथस्वामीकी आज्ञासे नारद विनयपूर्वक कृष्णके एक सिंहासन पर बैठ गये पश्चात् सबने परस्पर कुशलप्रश्न किये और उनसे नेमिनाथ कृष्ण बलभद्रादि सबको प्रसन्नता हुई ॥३०-३१॥ पश्चात् और सब लोगोंने भी नारदको देखा। उनके दर्शनोंसे सर्व सामान्यको अथाह अानंद हुश्रा ॥ ३२ ॥
तत्पश्चात् नारदजी बोले, श्रीकृष्ण ! मेरी बात ध्यानसे सुनो। मैं अनेक देशोंमेंपरिभ्रमण करता हुआ जिनवंदना किया करता हूँ। मुझे तुम्हारा सदाकाल स्मरण रहता है और मैं सदा यही चाहता रहता हूँ कि तुम सुखसे तिष्ठो। तुम्हारे सुखसे मुझे सुख होता है और तुम्हारे दुःखसे मुझे दुःख होता है। ३३-३५ इसलिये अाज मैं तुम्हारे रनवासमें (अंतःपुरमें) जाकर तुम्हारी रानियोंको देखना चाहता हूँ।* कारण मुझे यह देखना है कि तुम्हारी रानियोंके समान अन्य स्त्रिये संसारमें हैं या नहीं ? [ तथा तुम्हारी स्त्रियाँ तुम्हारे समान विनयवान और उदारचित्त हैं अथवा नहीं ] ॥३६॥ नारदजी श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर आश्चर्यसहित अंतःपुर देखनेके मनोरथसे भीतर गये ॥३७॥ पहले श्रीकृष्णकी पट्टरानी सत्यभामाको ही देखना चाहिये, ऐसा विचारकर वे उसीके महल को गये ॥३८॥ जिस समय नारदजीने दूरसे उस सुनेत्रा सत्यभामाको देखा उस समय वह मज्जन करके कृष्णजीके सिंहासन पर बैठी हुई थी और सामने दर्पण रक्खे हुए अपनी मनोहर रूप सम्पदाको निरखती हुई वस्त्र आभूषण पहन रही थी और फिर फिरकर अपने विभूषित रूपको देखकर अपने भर्तारके सन्मानका स्मरण करती हुई अर्थात् इस शोभाको देख कर महाराज मेरा बहुत सन्मान करेंगे इस विचारमें मन ही मन हर्पित हो रही थी॥३६.४१॥ उसका चित्त दर्पणमें ऐमा लग रहा था कि उसे भान भी नहीं हुआ कि नारद जी आये हैं । जब नारदजी धीरेसे उसकी पीठके पीछे जाकर खड़े हो गये और भस्मसे
* नारद सकचे ब्रह्मचारी थे। उन पर इस विषय में सबका विश्वास था। इसलिये उन्हें रनवासादि में जानेकी मनाई नहीं थी।
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