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जावेंगे ॥१५॥ हे नाथ ! वास्तवमें आपने मुझे भूत-भविष्यत् - वर्तमान कालमें योग्यता का पात्र बनाया है । यदि ऐसा न होता तो भला आपका मेरे घर पर पधारना कैसे होता ? ॥ १६ ॥ १५ ही पृथ्वीतलपर विवेकी, प्रशंसापात्र और धन्यवाद देनेके योग्य हैं, जिनके गृहपर आपके समान महापुरुषों का शुभागमन हो । १७। इसतरह कृष्णजीने नारदजीकी प्रशंसा और अपना सौभाग्य दर्शाया । फिर मुनिको आज्ञा पाकर वे नियमपूर्वक दूसरे सिंहासनपर बैठ गये || १८ || नारदजी बोले, राजन् ! मेरी बात सुनो, निःसंदेह मैं यहाँ तुमसे मिलनेके वास्ते ही आया हूँ ॥ १६ ॥ जो मैं आपके समान सत्पुरुषों के घर जानेसे ही वंचित रहूँ तो मेरे अवतारसे क्या प्रयोजन है ! ||२०|| जिनेन्द्र, बलदेव, नारायण आदि पुरुषोत्तम दर्शन करनेके योग्य होते हैं । यदि उनसे न मिलूं, तो मेरा जन्म ही निष्फल है ||२१|| थोड़ी देर इस तरह परस्पर प्रेमसंवाद होता रहा, तदनंतर नारदजीने कृष्ण जी को देशदेशांतर के ताजे समाचार सुनाए और अनेक तीथों से लाई हुई आशिषे दी ॥ २२ ॥
जिस समय नारद मुनि और महाराज कृष्णका इस तरह वार्तालाप हो रहा था, उसी समय श्रीनेमिनाथ स्वामी भी वहाँ पधारे। जिनेश्वरको आाया जान कर समस्त सभाके मनुष्य और कृष्ण व नारद खड़े हो गये ।। २३-२४ ॥ नारदजीने भगवानको दूसरे सिंहासन पर बिठाया और उनकी भक्ति पूर्व क इसतरह स्तुति की || २५ || "हे जिनेश्वर ! आप जयवत रहो ! हे पापके नाश करनेवाले आपकी सदा जय हो ! आप जरामरण के दुःखों को नाश करते हो, आप तीन भुवनके नेत्र हो, याप भव्य कमलों को सूर्य के समान प्रफुल्लित करनेवाले हो । आप कलावान और सदाकाल उदयस्वरूप द्वितीय चंद्रमा हो ॥ २६-२७ ॥ चारों प्रकार के देवोंसे सेवित हे जिनधीश ! आपको नमस्कार हो । हे कल्याणके कर्त्ता और गणधरादिके स्वामी ! आपको नमस्कार हो । हे नेमिनाथस्वामी ! आप कामरूपी गजको सिंह समान हो, मोहरूपी सर्पको गरुड़ समान हो और जन्ममरण के नाश करनेवाले हो
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