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चरित्र
विना अकेला द्वारिकामें नहीं जाने दूंगा। मुझे एक बार चलकर तुझे तेरी माताको सौंप देने दे फिर जो कार्य तुझे अच्छे लगे सो करना।८६-८७। उन दोनोंका अर्थात् उदधिकुमारीका और नारद जी का अभिप्राय समझके प्रद्युम्नने कहा, हे तात इस समय मैं कुछ भी चपलता नहीं करूंगा। यदि करूंगा तो सारे स्वजनजनों कुटुम्बी लोगोंसे मिलकर फिर मैं सारी द्वारिकापुरीको कैसे देख सकंगा ? इसलिये क्षणभरमें जाकर द्वारिकापुरीको देखकर मैं अभी आपके समीप श्रा जाऊंगा, यह आप निश्चित समझलें ।८८-६०। ऐसा कहकर प्रद्युम्नने अपने विमानको आकाशमें स्थम्भित कर दिया। उसमें नारद और उदधिकुमारी बैठी रही।
__ज्यों ही प्रद्युम्नकुमार उतरा, उसने द्वारिकाकी पृथ्वीपर पैर रक्खा त्योंही उसे भानुके (सूर्यके) समान भानुकुमारके दर्शन हुए।९१-९२। छत्र चवरोंसे भूषित, नानाप्रकारकी विभूतिसे संयुक्त, और राजपुत्रोंसे सेवित, उस प्रतापशाली वीरको देखकर कामदेवको आश्चर्य हुश्रा । उसने तत्कालही अपनी विद्यासे पूछा, कि यह कौन है; मुझे बतला । तब विद्याने विनयपूर्वक कहा कि, हे महाभाग सुनिये यह घोड़े पर चढ़ा हुआ और अनेक राजाओंसे वेष्टित हुअा भानुकुमार तुम्हारी माता रुक्मिणी की सपत्नीका (सौतका) पुत्र है।६३-६६। यह उदयैकनिवास अर्थात् बड़ा भारी प्रतापशाली है, तथा श्रेष्ठ पुरुषों के सम्पूर्ण लक्षणोंसे युक्त है। हे महामते इसके विषयमें आपको जो रुचै, सो करो।९७। विद्याके वचन सुनकर कामदेवने उसी समय प्रज्ञप्ती नामकी महाविद्याका स्मरण किया। और उसके प्रभावसे उसने तत्काल ही एक बड़े उदर और शरीरवाला, चंचल वेगगामी, सम्पूर्ण अवयवोंसे सुन्दर तथा उत्तम घोड़ेके सब लक्षणोंसे युक्त घोड़ा बना लिया और आप स्वयं बहुत ही बूढ़ा, बहुत ही मोटा, हाथ पैर मस्तक आदि सारे अंगोंसे कांपता हुवा, बड़ी २ भौंहोंसे जिसकी आंख ढंक गयी थीं, ऐसा घोड़ा बेचनेवाला बन गया ।९८-३०१। इस प्रकारका अपना रूप बनाकर वह सोनेकी जीनसे
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