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प्रधुम्न
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नहीं मालूम पड़ता और शुक्लपक्ष में सोचते हैं कि, आकाशके चन्द्रमाके सिवाय ये और चन्द्रमा उग रहे हैं, सो क्या हैं, जहांकी चौड़ी २ गलियोंका भी मार्ग लोगों के थाने जाने से निरन्तर दुःखदायी बना रहता है, जो मुक्ताफलोंगों और शंखादि नानाप्रकार के रत्नोंसे भरपूर है, जहां जगह २ अच्छे अच्छे सुन्दर तथा रमणीय वृक्ष फूलोंसे लदे हुए और भौरोंकी गुंजारसे वाचाल सरीखे होरहे हैं, जहां तालाबों में कमलिनी खिल रही हैं, जिनपर भौंरे झूम रहे हैं, जहांकी वापिकायें नानाप्रकारकी
मय भीतों से बनी हुई हैं, जहांकी शोभाको देखकर स्वर्ग के रहने वाले बड़े २ देव भी पृथ्वी में रहने के लिये स्वर्ग छोड़ देना चाहते हैं— अर्थात् जो नगरी स्वर्गपुरीसे भी रमणीय है और जिसे जिनेन्द्र भगवानकी परमभक्ति से तथा श्रीकृष्णनारायणकी शक्ति से इन्द्रने बनवाई है, और कुबेर ने जिसे स्वयं बनाई है, उस द्वारिका पुरीका वर्णन मैं क्या कर सकता हूँ इतना ही कर सकता हूँ कि, तीनों लोकमें ऐसी कोई दूसरी नगरी नहीं है । ६८-७८ ।
ऐसा कहकर नारदजीने प्रद्युम्न कुमारको बड़े हर्ष के साथ नगरीके घरोंकी पंक्तियां दिखलाई; जब कि उनका विमान द्वारिका के ऊपर पहुँच गया था । ७६ । नारदजी के वाक्य सुनकर नानाप्रकार के कौतुक करता हुआ प्रद्युम्न कुमार बोला, हे नाथ आपकी याज्ञा लेकर मुझे द्वारिका नगरी देखने की इच्छा है, सो यदि आप कह देवें, तो मैं जाकर देख आऊँ | ८०-८१ । नारदजी बोले, हे वत्स ! यादवों से भरी हुई नगरीमें तुम्हारा जाना योग्य नहीं है । क्योंकि तुम्हारी चपलता देखकर यादवगण भी उपद्रव करेंगे, यह बात निश्चित है । इसी समय कामकुमारको जानेके लिये उत्सुक देखकर उदधिकमारीने नारदजी से समस्या के द्वारा ( इशारे से ) कहा हे नाथ ! आपको इन्हें नगरी देखनेके लिये नहीं जाने देना चाहिये । ये अतिशय चपल हैं इसलिये यादवोंके द्वारा इन्हें कुछ न कुछ पीड़ा पहुँचेगी,इन्हें दुख होगा । ८२-८५। उसकी समस्या का अभिप्राय समझके नारदजी बोले, हे वत्स तुझे मैं अपने
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