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चरित्र
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के सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये दृष्टान्तस्वरूप रूपवाला होगया ।५५-५८। उसके ऐसे मनोहारी रूपको देखकर वह मृगनयनी प्रसन्नमुखी अतिशय प्रमुदित और संतुष्ट हुई। इसीप्रकार से उसके दर्शनमात्रमें कुमारका चित्त भी परम प्रीतिके वश होकर उसके रूपमें उलझ गया, बद्ध हो गया ५९-६०। परस्परके प्रेमसे उन दोनोंके हृदयमें जो अनुरागजन्य अपूर्वभाव उत्पन्न हुअा, उसका हम वर्णन नहीं कर सकते हैं ।६१। एक दूसरेके रूपको देखकर वे दोनों अनुरागयुक्त होगये। प्रेमसे उन दोनोंके मुख उल्लसित हो गये ।६२। परन्तु नारदजीकी लज्जाके कारण वे कुछेक वक्रदृष्टि किये रहे, जिसमें हृदयका भाव प्रगट न होने पावै । विमान में बैठा हुआ वह जोड़ा नारदमुनिके साथ वहांसे प्रसन्नताके साथ चलने लगा।६३।
अपनी भार्या और मुनिके सहित थोड़ी दूर चलकर प्रद्युम्नकुमारने नानाप्रकारकी उड़ती हुई ध्वजारोंसे शोभित एक रमणीय नगरी देखी।६४। इसलिये नारदजीसे पूछा, हे नाथ ! यह कौन नगरी है तब तपरूपी धनको धारण करनेवाले नारदजीने बड़े प्रेमसे उत्तर दिया कि हे वत्स पृथिवीमें अतिशय प्रसिद्ध द्वारिकानामकी नगरी यही है । मानों उत्तम पुरुषोंके रहनेके लिये इसे विधाताने स्वयं बनाई है ।६५-६६। अथवा इन्द्रने लोगोंके बचे हुए पुण्यसे यह स्वर्गका एक कान्तिमान खण्ड ही पृथ्वीमें लाकर रख दिया है।६७। जिसमें श्रीकृष्णनारायण रहते हैं, जिनकी सब लोग प्रशंसा करते हैं, जिसके चारों ओर बड़ा भारी कोट है, जो गोपुरोंके समूहसे अर्थात् कोटके दरवाजोंसे शोभित है, जो एक विस्तृत खाईसे घिरी हुई है, जिसका कि जल स्नान करती हुई स्त्रियोंके कुचोंसे धुली केशर से रंजित है, जहांके राजमार्ग मदोन्मत्त हाथियोंके कपोलोंसे बहे हुए मदजलसे कीचड़युक्त तथा दुर्गम हो रहे हैं, चूनेसे पुते हुए महलोंकी छतोंपर बैठी हुई स्त्रियोंके मुखचन्द्रसे जिस नगरीके लोगोंको दोनों पक्षोंमें शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष में आश्चर्य हुआ करता है । अर्थात् कृष्णपक्षमें भी वे स्त्रियोंके मुखचन्द्रकी चन्द्रिकासे प्रकाशमान श्वेत महलोंको देखकर विस्मित हो जाते हैं कि, ये तो कृष्णपक्षसा
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