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चरित्र
लोगोंका भार भी अपने ऊपर नहीं लादने देते थे। इसीसे कहते हैं कि जब दुःख पाता है, तब दुःख ही दुःख पाता है, और जब सुख प्राता है तब सुख ही सुख । अर्थात् दुखमें दुख और सुखमें सुख आता है ।२६-३०। अन्तमें भीलोंके समूहने कौरवोंकी सेनाको जीत ली। शूरवीरोंने रणभूमि को छोड़ दी।३१॥
उस समय नारदमुनिके देखते हुए किरात वेषधारी प्रद्युम्न उदधिकुमारीको अपनी दोनों भुजाओंसे उठाकर आकाशमें उड़ गया ।३२। भीलोंके भयसे कांपती हुई कुमारीको प्रद्युम्नकुमार अपने उत्कृष्ट विमानमें ले गया और नारदजीके समीप बिठाकर आप कौरवोंकी सेनाकी ओर मुंह करके बैठ गया। उस समय वह भीलके ही वेषमें था। उसके विकराल रूपको देखकर उदधिकुमारी थर थर कांपती हुई रोती हुई विलाप करती हुई और अपनी बारम्बार निन्दा करती हुई नादरजीसे बोली हे पिता !
आप मेरे पापकर्मके उदयको तो देखो। मेरे बुद्धिमान पिताने पहले मुझे रुक्मिणीके पुत्रको देनी कही थी सो मेरे पापके वशसे उन्हें तो कोई बैरी हरणकर लेगया। पीछे उन्होंने सत्यभामाके पुत्र भानुकुमारको देना विचारा सो कर्मके प्रभावसे में स्वयं ही इन भीलोंके द्वारा हरी गई ।३३-३८। इतना कहकर उदधि कुमारी अतिशय करुणा उत्पन्न करनेवाले वचन कहती हुई रोने लगी। हे पिता तुम मेरी रक्षा क्यों नहीं करते हो ? मुझे यह वनचर लिये जाता है। और हे माता ! मेरे भाग्यके वशसे तू मेरी रक्षा क्यों नहीं करती ? दुष्ट भीलके भयसे में व्याकुल हो रही हूँ ।३६-४०। और हे कुटुम्बीजनो ! तुम सब मुझ दुःखिनीकी ओर क्यों नहीं देखते हो, जल्द आकर मेरी इस भोलसे रक्षा करो।४१।
विकराल भीलके दर्शनसे कांपती हुई, विलाप करती हुई, लम्बा २ सांस लेती हुई अपने अपने शिथिल वस्त्रोंको दुःखसे सम्हालती हुई, और मुख पर हाथ रखकर बारम्बार रोती हुई उदधिकुमारी बड़े अचरजसे बोली, “हे महाराज ! मेरी बात सुनकर कहिये कि, यह भील तो दुरात्मा है, फिर इसे
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