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कर जल्द लौट आओ ।" यह सुनते ही प्रद्युम्नकुमार अपने विमानको आकाशमें ही खड़ा करके पृथ्वी पर उतर पड़े । ६६ । और एक भीलका वेष धारण करके जलद ही वहां पहुँचे जहां सारी सेना भोजन के चरित्र लिये बैठी थी । ७० । उस भीलका मुँह सुखासा था, दाँत बड़े २ थे, चौड़े ललाटसे और कपोलोंसे भय मालूम पड़ता था, सिरपरका जूट वल्लरी से (बेलसे) लिपटा हुआ था, चपल तथा अतिशय लाल नेत्रोंसे वह कुरूप दिखता था, हाथीकी सूंडके समान उसकी प्रौढ़ और भीम भुजायें थीं, स्थूल जंघायें थीं, बड़ा भारी शरीर था, भौंहें और अलकें टेढ़ी थी, पीठ कटि और ग्रीवा भग्न थीं छाती विशाल थी और पेट बड़ा भारी था । इस प्रकारसे वह भील वीभत्स और रौद्ररूपका धारण करने वाला था ७१७४ । उसे देखकर दुर्योधनकी सेनाके सेवक, व यौवनपूर्ण राजकुमार हँमने लगे । ७५ । और बोले, अरे पापी ! तू साम्हनेका मार्ग छोड़ दे, हम यहांसे आगे जाना चाहते हैं । हे दुर्मुख ! तू मार्ग में किस लिये खड़ा है। यह सुनकर भील वह कुपित होकर बोला, मैं यहां पर श्रीकृष्ण महाराजकी आज्ञा से कर लेने के लिये रहता हूँ, सो तुम सब मुझे कर देकर यहांसे जाने पावोगे । ७६-७८ । श्रीकृष्णका नाम सुनकर उनकी प्रीति से सब सुभट इसप्रकार कोमल वचन बोले कि, हे भाई! तुम क्या लेना चाहते हो सो कहो । ७९ । हाथी, घोड़े, रथ, धन धान्य यादि सब प्रकारकी सामग्री हमारे पास है । उनमें से तुम्हें जो रुचै, वह ले लो |८०| तुम्हें इच्छित वस्तु देकर हम आगे चले जावेंगे, अब इसमें कुछ संशय नहीं है | जब तुम श्रीकृष्ण महाराज के अनुचर हो, तब हम तुम्हें किसलिये दुःख देंगे ? हम आनन्द र कुशलता के साथ यहांसे जल्द ही जावेंगे, । यह सुनकर भील बोला, हे कौरवों ! मुझे मालूम नहीं है कि, तुम्हारी सेनामें कौनसी वस्तु सर्वोत्तम है । इसलिये तुम्हारे यहां जो वस्तु प्रतिशय श्रेष्ठ हो, और जो तुम देना कहते हो, मुझे वही दे दो, और जाओ | ८१-८३ | क्योंकि मेरे सन्तोष करनेहीसे इस वनमें तुम्हारी कुशलता है । मैं सच कहता हूँ कि, मेरे योद्धा बुरे रास्ते में
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प्रद्युम्न
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