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________________ प्रद्युम्न भक्ति करता है ।५५। और भी जितने यादव हैं, वे सब मेरा निरंतर सत्कार करते हैं, फिर तू दयारहित होकर मुझे क्यों व्याकुल करता है ।५६। यह सुनकर कुमारने कहा, हे तात ! जान पड़ता है कि तुम्हारा चरित्र भी कुटिलतायुक्त हो गया है ।५७। इसोलिये में विमान को शीघ्रतासे चलाता हूँ, सो आपको नहीं रुचता है और धीरे २ चलाता हूँ, सो अच्छा नहीं लगता। तो लो अब मैं नहीं जाऊँगा आप जानो।५८ऐसा कहकर उसने आकाश में ही अपना विमान खड़ा कर दिया। तब क्रोधको मन में दबाकर नारदजी बोले, यह विद्याधरों का स्थान तुझसे छोड़ा नहीं जासकता है। इसलिये मेरे लिवाने को पानेसे तु जानेमें इतना विलम्ब कर रहा है ।५६-६०। तुझे मालूम नहीं है कि, यदि तेरी माता का पराभव होगया, और तृ पीछेसे पहुँचा, तो फिर तेरे जानेसे भी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।६१। और हे वत्स में और भी एक बात तुझसे कहता हूँ। यद्यपि उसका कहना तेरी माताको अभीष्ट नहीं था, तो भी मैं कहता हूँ।६२। तेरे माता पिताने तेरे लिये बहुतसी सुन्दर २ कन्याओं की याचना की है । सो यदि तू नहीं पहुंचेगा, तो उन सब कन्याओं को तेरा छोटा भाई वरण लेगा ।६३। सो जब वे कन्या विवाही जा चुकेंगी, तब फिर जानेसे क्या लाभ होगा। नारद के इसप्रकार कानोंको प्यारे लगने वाले वाक्य सुन प्रद्युम्नने अपने विमानको फिर भी वायु वेगसे चलाना शुरू कर दिया उस विमानकी उड़ती हुई रमणीक ध्वजायें ममुद्रमें उठती हुई चंचल नरंगों के ममान जान पड़ती थी। जिस समय वह विमान आकाश में बड़े वेगसे जा रहा था, उम समय मार्गस्थ नगरों की स्त्रियोंके नेत्रोंको प्रसन्न करने वाला, और मुस्कुराते हुए नारदजीके कारण शोभित होने वाला जो । रमणीय चरित्र हुआ, उसको हे श्रेणिक हम संक्षेपसे कहते हैं-६४-६७। विद्याधरोंके विजया पर्वतको जल्दही लांघकर प्रद्युम्न और नारदजीने भूमिगोचरियोंकी पृथ्वी देखी, जो अनेक वनोंसे, नगरोंसे समुद्रोंसे और पर्वतोंसे सघन हो रही थी। उसे कमक्रमसे || Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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