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________________ चरित्र प्रद्यम्न को क्षमा करो। और हे माता ! तू भी मुझ बालकके पापकार्योंकी क्षमा कर ।१०। अब मैं आप दोनोंकी आज्ञासे अपने पिताके घर मिलने के लिये जाता हूँ। इसलिये मुझे आज्ञा दीजिये। मैं बिना अाज्ञाके नहीं जाऊँगा ।११। मैं आपका बालक हूँ, इसलिये हे पिता ! मेरा निरन्तर स्मरण रखिये । वहां माता पितासे मिलकर मैं जल्द लौट आऊंगा।१२। हे नाथ आप मेरे विभागको सर्वदा सुरक्षित रक्खें । मैं निरन्तरके लिये यहीं अाकर रहूँगा ।१३। और हे माता ! मुझ सेवकपर आपको भी सदा प्रसन्नदृष्टि रखनी चाहिये । क्यों कि पुत्र चाहे कुपुत्र हो जावें, परन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती है। ऐसी संसारमें प्रसिद्धि है । और सो भी मेरे जैसे परतन्त्र पुत्रपर कौन कोप करेगा ? ।१४-१५। आपको ऐसा ही समझना चाहिये कि, यह मेरे उदरसे उत्पन्न हुआ है। कुछ भी अन्तर नहीं मानना चाहिये । मैं आपका पुत्र हूँ, । इसमें संशय नहीं है ।१६। प्रद्युम्नकी ये सब बातें वे दोनों लज्जाके मारे नीचा मुख किये हुए सुनते रहे। उन्होंने कुछ भी उत्तर न दिया। तो भी वह विनयवान कुमार उन्हें बारंबार नमस्कार करके तथा अपने भाइयों को, परिवारके लोगोंको, मंत्रियोंको फिर २ कर संतुष्ट करके तथा मोहयुक्त होकर प्रणाम करके उस नगरसे निकलकर चला । उस समय उसको लोग स्तुति करते थे ।१७-१६। नारदके समीप पहुँचकर प्रद्युम्न विनयके साथ बोला, हे तात ! मुझे बतलाश्रो कि, यहांसे द्वारिका कितनी दूर है ।२०। तब नारदने कहा कि, यह तो विद्याधरोंका देश है, और वह द्वारिका नगरी मनुष्यों की है । इसलिये बहुत दूर है । कुमारने कहा; यदि वह नगरी दूर है, तो हे तात ! वहां तक कैसे चला जावेगा।२१-२२। नारदजी बोले हे वत्स ! मैं तुम्हें शीघ्रगामी विमान पर बैठाकर बहुत वेगसे ले जाऊँगा। प्रद्युम्नने कहा, यदि ऐसा है तो उस वेगगामी विमानको जल्दी तैयार करो, जल्दी सजाओ।२३-२५। कुमारके वचनोंसे सन्तुष्ट होकर नारदजीने एक बड़ा भारी, सुन्दर, कल्याण Jain Educatinterational For Privale & Personal Use Only www.jabrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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