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________________ प्रद्युम्न २०० ऐसा कौनसा दुःख है जो पापसे उत्पन्न नहीं होता है ? अर्थात् सब ही दुःख पापके फलसे होते हैं । इसलिये सोम अर्थात् चन्द्रमाके समान सौम्यरूप पुण्य ही करनेके योग्य है । भव्यजीवों को पुण्य से ही सुख प्राप्त होता है । ६००। शत्रुओं के साथ विदेश अर्थात दूसरे भयंकर स्थानों में जाकर भी उत्तम फल के देनेवाले लाभ पाये, जगत प्रसिद्ध प्रज्ञप्ती और रोहणी विद्या पाई, भाईयोंको बांधकर टांग दिये, for युद्ध जीत लिया, इस प्रकारसे वह प्रद्युम्नकुमार पुण्यके फलसे सुर और मुनिके (नारद) सहित शोभित होता हुआ | ६०१ | इति श्रीसोमकीर्ति आचार्यविरचित प्रद्युम्नचरित्र संस्कृतग्रन्थके नवीन हिन्दीभाषानुवाद में सोलह लाभोंकी और विद्याओंकी प्राप्ति, पिता, भाइयोंका विरोध, नारदका आगमन आदि वर्णनवाला नवमां सर्ग पूर्ण हुआ। अत दशमः सर्गः । अथानन्तर - नारदजीने प्रद्युम्न कुमारसे कहा, हे वत्स ! अब बिना विलम्बके द्वारिका नगरीको चलना चाहिये |१| तब कृतज्ञ कुमारने कहा कि माता पिताके पूछे बिना मेरा जाना ठीक नहीं है। इसलिये आप यहीं ठहरें, मैं नगर में जाता हूँ और माता पितामे पूछकर अभी आपके पास आ जाता हूँ | २-३ | ऐसा कहकर और नारदको वहीं छोड़कर प्रद्युम्नकुमार वहां गया, जहां पर राजा कालसंवर कनकमाला के साथ दुःखावस्था में बैठे हुये थे |४| वहां जाकर और माता पिताको नमस्कार करके प्रद्युम्न कुमारने कहा, हे महाभाग पिता ! मेरे वचन सुनिये | ५ | मैंने अज्ञानतासे जो अनिष्ट कर्म किया है, उसे कृपा करके क्षमा कीजिये | ६ | इससे अधिक मूर्खता मेरी और क्या कही जा सकती, जो मैंने अपनी माता के विषय में (यापकी समझ में) ऐसा पाप विचारा | ७| परन्तु जो दीन हैं, अनाथ हैं, तथा पराधीन हैं, सज्जन पुरुष उनके ऊपर कभी कोप नहीं करते || हे नाथ ! मैं आपका किंकर हूँ, क्योंकि मुझे आप हीने जिलाया है, पालकर बड़ा किया है और अभी आपसे जीता हूँ । इसलिये मुझपर कृपा करके मेरे पापों For Private & Personal Use Only Jain Education International चरित्र www.nalibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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