SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ कहे हुए वचनों को बारम्बार चितवन करने लगे । ८३-८५। सो ठीक ही है, अपने वंशकी योग्यता प्रधानता और बहुमूल्यता, सुनकर किसे सन्तोष नहीं होता है ?, ८६ नारद के ही वचनसे उस पुण्यवान पापरहित कुमारने अपने पिता राजा कालसंवरको छोड़ दिया, और सारी सेनाको उठा दिया, चैतन्य कर दिया | ८७| तब वे सबके सब सेना के योद्धा कठोर शब्द करते हुए उठे कि, इसे पकड़ो, इस दुर्जय शत्रुको मारो || उस समय नारदने कहा, हे शूरवीर योद्धाओं ! इम युद्ध में तुम सबका पराक्रम देख लिया || व तुम कुशलता के साथ अपने नगर में चले जाओ। तुम्हें प्रद्युम्नकुमार ने जीवन दान दिया |१०| तब वे सुभट लड़ाईका मारा वृत्तांत जानकर और अपनी मुर्च्छा वगैरह का हाल समझकर चतुरंग सेनाके साथ अपने नगरको चले गये | ११ | राजा कालसंवर लज्जाके मारे न तो कुछ नारदसे कह सकते थे और न प्रद्युम्नकुमार से कहते थे |२| अन्तमें दीन और मलीनमुख होकर नगरको चले गये। वहां जाकर कनकमालासे बोले, तुम्हारा कुछ भी दूषण नहीं है | १३ | जो कर्म पूर्व में कमाये हैं, उन्हीं के फल प्राप्त होते हैं । इसलिये इसमें न तो दुःख करना चाहिये और न आनन्द मानना चाहिये | ६४ | इस प्रकार जब राजा रानी अपने महल में बैठे हुए चिन्ता कर रहे थे, तभी वे पांचसौ पुत्र भी गर्वरहित होकर दीनमुख किये हुए गये उन्हें दयालु हृदय प्रद्युम्नने वापिकाके जलमेंसे निकालकर छोड़ दिया था । ६५-९६ । नगरनिवासियोंने कनकमाला रानीका ऊपर कहा हुआ सारा चरित्र जानलिया । इसलिये लोग कहते हैं कि, पाप छुपा नहीं रहता; सर्वत्र फैल जाता है | ६७ पापियों की जय कभी नहीं होती धर्मात्मा ही जय होती है । इसलिये भव्य पुरुषोंको चाहिये कि, दूरहीसे पापका त्याग करें । ९८ । प्राणियों को पुण्यके ही प्रभाव से मनुष्यलोक और स्वर्ग लोक सम्बन्धी सुख प्राप्त होता है, इसलिये भव्य पुरुषों को निरन्तर धर्म करना चाहिये | ६०| और सर्वदा पापका त्याग करना चाहिये। क्योंकि For Private & Personal Use Only Jain Education International चरित्र www.library.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy