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प्रथम्न
नहीं मारूँगा। क्योंकि एक तो तू बालक है और दूसरे युद्धविद्या से अपरिचित तथा दुरात्मा है । ।५४-५५। यह सुनकर प्रद्युम्न बोला, हे तात ! मेरी बात भी सुन लीजिये। स्त्री की बातोंमें । चरित्र तल्लीन हुए मूर्ख पिताको में भी नहीं मार सकता हूँ ।५६। इसलिये पहले तुम्हीं बाण चलाओ, पीछे मेरा दोष नहीं रहेगा। यह सुनकर राजा कालसंवर क्रोधसे दुःखी हो गया। उसने धनुष पर बाण स्थापित करके बड़े वेगसे मारना शुरू किया और फिर वे वलसे उद्धत हुए दोनों वीर देवोपनीत तथा सामान्य शस्त्रोंसे युद्ध करने लगे ।५७-५९। इतनेमें कालसंवरने एक बाण ऐसे वंगसे चलाया कि, उम से प्रद्युम्नकुमार का रथ टूट गया ।५६ अपने रथको टूटा देखकर प्रद्युम्नने भी एक वेगशाली वाण चलाकर पिताको अपने समान कर दिया अर्थात् उसका भी रथ तोड़ डाला ।६०। और तत्काल ही उस मुग्धचित्त पिताको नागपाशसे बांधकर, अपने समीप ला रक्खा । पश्चात वह लज्जाके कारण कुछेक नीचा मुँह करके चिंता करने लगा; युद्ध में मैंने इतनी सेनाको मायाके वशसे मूर्छित कर दिया है।६१. ६२। अब कोई उत्तम पुरुष आकर मेरे पिताको छुड़ा देवे, तो अच्छा हो ! सच है, होनहार होता है, वह अन्यथा नहीं होता है ।६३। जिस समय वह इस प्रकार विचार कर रहा था उसी समय नारद महाशय आकाशरूपी आंगन में नृत्य करते हुए और हर्पित होते हुए श्रा पहुँचे ।६४। उन्होंने सोचा ग्राज यह अच्छा हुआ, जो पिता ही के साथ पुत्रका बड़ा भारी विरोध हो गया । अब यह जरूर मेरे साथ चलनेको तैयार हो जावेगा।६५। तब नारदजीने दर्शन देकर उत्तमोत्तम वचनोंसे आशीर्वाद दिया
और जानते हुए भी पूछा कि, यहां यह युद्ध क्यों हुअा ? ।६६। उनके वचन सुनकर प्रद्युम्न बोले, हे नाथ ! हे महाभाग ! मेरे वचन सुनिये ।६७। माताके वचनों पर विश्वास करके पिताने मेरा बुरा चिन्तवन किया था। संसारमें बराबरीके लड़के को मारना बड़ा ही निन्दित है, परन्तु पिताने उसीके लिये तैयारी की थी।६८। इसके पीछे प्रद्युम्नने माताका सारा दुश्चरित्र पिताके सुनते हुए नारदको
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