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और प्रज्ञप्ती नामकी जो दो विद्यायें तेरे पास हैं, उन्हें मुझे दे दे, जिससे उस मूर्ख शत्रुका मारकर तेरे मनोरथोंको पूर्ण करू । ३६-४०। यह सुनकर रानी कनकमाला स्त्रीचरित्र बनाकर राजाके आगे रोने लगी। उसे रोती हुई देखकर राजाने अपने मनमें सोचा इस व्यभिचारिणी ने दोनों विद्यायें किसी को दे दी हैं, इसमें सन्देह नहीं है । फिर कुछ विचार करके कहा, प्रिय तू रोती क्यों है ? मुझे वे विद्यायें शीघ्र ही दे दे। क्योंकि शत्रु बलवान है । उसे विद्याओं के प्रभावसे मैं क्षणभर में मार डालूँगा |४१-४३। तब वह मृढ़ा रोती हुई आंसू बहाती हुई गद् गद् कंठसे स्वामी से बोली, हे नाथ ! उस पापीने मुझे एक ही बार नहीं अनेक बार ठगा है । इस दुष्टकी वार्ता भी कहने योग्य नहीं है। ४४-४५। मैंने एक दिन इस बालक को बोलते हुए देखकर मनमें विचार किया था कि, यह बालक वृद्धावस्था में हम दोनों की पालना करेगा |४६ | ऐसा विचार करके मोहके वशसे इस भोली ने उसे अपनी दोनों विद्यायें स्तनों में प्रवेश कराके पिला दी थीं । ४७ । हे नाथ! मुझ मूर्खाने उस समय यह नहीं जाना था कि, यह जवानी में ऐसा पापी होगा |४८ | मैं तो यहांसे भ्रष्ट हुई और वहांसे भी भ्रष्ट हुई। अब क्या करूँ ? मेरी आशा नष्ट होगई उस निर्विवेकी पापीने मुझे कई बार ठगी है | ४९ | ऐसा कहकर कनकमाला गला फाड़कर रोने लगी। ये ढोंग देख कर कालसंवरने उसके सारे दुश्चरित्र जान लिये । स्त्रीके कहे हुए वचन सुनकर उन्होंने सिर हिलाया और मनमें चिन्तवन किया कि १५० - ५१ । अहो ! स्त्रियोंके चरित्रोंको कौन वर्णन कर सकता है ? इसने मेरी दोनों विद्यायें खो दीं और पुत्र भी खो दिया । ५२ | ऐसी अवस्था में तो जीवन से भी कुछ प्रयोजन नहीं है । उसके सन्मुख जाकर जल्द ही मर जाऊँगा । इसमें सन्देह नहीं है ऐसा विचार करके राजा ऊँची स्वास लेता हुआ महल से निकला और रणांगन में जाकर प्रद्युम्न से बोला, तू अपने तरकशमें रक्खे हुए वाणोंको मुझपर शीघ्रता से चला । मैं पहले ही तुझे
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प्रद्यम्न
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चरित्र
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