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________________ प्रद्युम्न १३ Jain Educat श्रीकृष्ण महाराज जिनधर्ममें सदा लवलीन थे, इन्द्रके समान जिनेन्द्रकी पूजा करते थे, सुपात्रोंको भली भांति दान देते थे और कुटुम्बी जनोंके सहित भोग भोगते थे || ६३ ॥ इस तरह श्रीकृष्ण महाराज प्रजाका पालन करते हुए, जिनेन्द्रकथित शास्त्रों का श्रवण करते हुए, गुरुजनों को नमन करते हुए, अपनी स्त्रियो के साथ प्रीतिपूर्वक क्रीड़ा करते हुए, बन्धुओं का सम्मान करते हुए, सम्यक्त्वको दृढ़ता से पालते हुए और अपने मन में संसारको केलेके स्तम्भके समान निःसार समझते हुए सुखसागर में मग्न रहकर अपना समय व्यतीत करते थे । उनका एक बलभद्र नामका भाई पृथ्वीमें अतिशय विख्यात था, जिसकी आज्ञा हजारों यादव मानते थे । श्रीकृष्णनारायण सत्यभामा के साथ अनेक बगीचों में क्रीड़ा किया करते थे ।। ६४-६७ ।। उनके यहाँ मदोन्मत्त हाथियों, शीघ्रगामी घोड़ों तथा सेवकों की गणनाका कुछ पार न था ॥ ६८ ॥ सात तरहकी राज्य विभूतिसहित राज्य करते हुए सुख सागरमें मग्न होकर उन्होंने कितना समय व्यतीत कर दिया, यह न जाना गया ॥ ६६ ॥ उनके राज्य में प्रजाको ईति, भीति यादिका भय था । वे प्रजाके हित के लिये राज्य करते थे ॥७०॥ इसतरह श्रीकृष्ण महाराजने अपनी कुलकी भूमिको छोड़कर विदेश में पूर्ण विनोद से राजलक्ष्मी भोगी और अपने धन धान्यको इस तरह बढ़ाया जैसे चन्द्रमा समुद्र को बढ़ाता है । सो ठीक ही है "जिन्होंने पूर्वभवमें पुण्यका संचय किया है, उन्हें कौनसी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती ? ॥ ७१ ॥ इति श्री सोमकीर्ति आचार्य विरचित प्रद्युम्नचरित्र संस्कृतप्रन्थ के नवीन हिन्दी भाषानुवादमे श्रीकृष्णकी राज्यविभूतिके वर्णनका द्वितीयसर्ग समाप्त हुआ अथ तृतीयः सर्गः एक समय राज्य विभूति से मंडित होकर कृष्ण महाराज अपने बन्धुवर्गों की एक बड़ी सभामें बिराजे थे, राज्य तथा देशसम्बन्धी वार्ता कर रहे थे और समस्त मंडलीको आनन्दित कर रहे थे । उस समयकी एक घटना सुननेके योग्य है ॥ १-२ ॥ International For Private & Personal Use Only चरित्र www.jaibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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