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________________ में से थोड़ा बहुत द्रव्य अपने पिताके घर भी भेज दिया करती थी ! इस तरह वहां वह अपने पापका फल प्रगट करती हुई रहने लगी और उसका नाम दुर्गन्धा पड़ गया ।५। इस प्रकारसे वह अपने दिन काटती हुई रहती थी कि, एक दिन माघ महिनेमें संध्याके समय जब कि शीत पड़ रहा था उस नदीके तीरपर वही मुनिराज आये जिनकी इसने पूर्व में निन्दा की थी और वे जाप करते हुए एक म्थानमें विराजमान हो गये ।६-७। उसने उन्हें देखकर मनमें विचार किया कि, ये योगीन्द्र ऐसे जाड़ेमें इस नदीके किनारे कैसे ठहरेंगे ? मैं अग्नि जलाकर और कपड़े ओढ़कर अपनी कुटीरमें बैठती हूँ, तो भी मुझे ठण्ड लगती है फिर यहां ये कैसे रहेंगे ऐमा विचार करके वह गतको मुनिराजके पास गई और आग जलाकर तथा वस्र अोढ़ाकर उनका शीत निवारण करने लगी।८.१०। सवेरा होने तक वह उमी प्रकारसे शीत निवारण करती हुई और विह्वलकी तरह यह कहती हुई कि, उधर शीत है ! इधर शीत है ? बैठी रही।११। जब सबेरा हुआ, तब योगिराजने ध्यानको छोड़कर उमसे पूछा, शोमशर्पा ब्राह्मण की पुत्री बेटी लक्ष्मीवती ! तू कुशल से तो है ? धीवरीने अपना कुछका कुछ नाम सुनकर मनमें सोचा, ये सत्यवचन के बोलने वाले योगीन्द्र क्या कहते हैं जैनशामन को धारण करने वाले तो कभी झूठ नहीं बोलते हैं, फिर यह क्या कारण है इस प्रकार बहुत विचार करने से वह मूछित हो गई । और उसी समयसे उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसके द्वारा वह अपने पूर्व भवोंका चिंतवन करने लगी।१२-१५। थोड़ी देरमें ठण्डी हवाके लगने से उसकी मूर्छा दूर हो गई । इमलिये उसने उठकर मुनिके चरणोंको नमस्कार किया और विनयपूर्वक अतिशय रोदन करते हुए कहा, हे नाथोंके नाथ ! इम जन्ममें यह मेरी क्या दशा हुई। कहां तो विप्रका जन्म और कहाँ यह धीवरका जन्म।१६. १७। हे विभो ! मुनि निंदाके प्रभावसे जो मैंने बड़ा भारी पाप कमया था, उसी पापके फलसे मैं भ्रमण कर रही हूँ। १८। हे नाथ ! पूर्वभवमें मैंने भारी पापके उदयसे तुम्हारी ही निन्दा की थी, इसलिये अब www.alibrary.org Jain Educa international For Private & Personal Use Only
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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