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________________ प्रद्यम्न चाहिये, जिससे कुलमार्गमें अर्थात् शीलव्रतमें रत्त रहते हुए, तेरी प्रशंसा होवे ।६०। इसप्रकार वह माताको बारम्बार समझाकर शीघ्रही उसके महलसे निकल आया और चिन्तित होकर घर छोड़कर वनको चला गया। वहां एक मन्दिरमें मुनिराज विराजमान थे जो द्वादशांगके धारण करनेवाले अवधिज्ञानी धीरवीर और मुनियोंके एक संघके नायक थे। उनका नाम श्रीवरसागर था । प्रद्युम्नने उनके दर्शन किये तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया और भक्तिपूर्वक आगे बैठकर दुःखसे मलीन मुख किये हुए अपनी माताके चित्तके विकारकी बात जो कि अतिशय गोप्य थी एकान्तमें मुनि महाराजसे निवेदन की। और पूछा हे नाथ कृपा करके कहो कि वह नानाप्रकारके विकारोंको प्राप्त होकर और कामसे पाकुलित होकर मुझमें आसक्त हुई है।६१-६६। प्रद्युम्नके वचन सुनकर यति महाराज बोले हे बुद्धिमान कुमार ! संसारकी विचित्र चेष्टाओंका श्रवण करो । कारणके बिना कभी कोई भी कार्य नहीं होता है । स्नेह अथवा वैर सब पूर्वजन्मके सम्बन्धसे होते हैं ।६७-६८। हे वत्स ! पूर्वजन्ममें जब तू मधु नामका राजा था तब तूने राजा हेमरथकी चन्द्रप्रभा नामकी रानीको मोहके वश हरण करली थी। सो वह दीक्षा लेकर और उत्कृष्ट तप करके तेरे ही साथ सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुई थी। वहांपर बाईस सागर तक उत्कृष्ट सौख्य भोगकर और आयुके अन्तमें चयकर विजयागिरिमें कालसंवरकी रानी कनकमाला हुई है और तू स्वर्गमें अपने छोटे भाई कैटभके साथ चिरकालतक सुख भोगकर द्वारिकानगरीमें यदुवंशतिलक श्रीकृष्णनारायणका पुत्र हुआ है ।६९.७३। सो जिस ममय तू अपनी माता रुक्मिणीके साथ सोता था, उस समय पूर्वके मेरी दैत्यने हरण करके क्रोधमें आकर तक्षक पर्वतकी एक शिलाके नीचे तुझे दबा दिया था।३७४। वहां राजा कालसंवर और रानी कनकमालाने पहुंचकर शीघ्र ही निकाल लिया और स्नेहके साथ तुझे बड़ा किया ।७५। इस समय पूर्ण मोहके वशसे तुझे देख कर कनकमाला कामसे अतिशय संतप्त हुई है । क्योंकि मोह बड़ी कठिनाईसे छोड़ा जाता है ।७६। Jain Educa www.jabrary.org For Private & Personal Use Only International
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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