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चरित्र
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अपने कुचोंको देखने लगी और बारम्बार जम्हाई लेने लगी ।२६। शरीरमें जो आभूषण पहने हुए थी, उन सबको अलग करके अपने शरीरकी निन्दा करने लगी।३०। केशोंको खोलकर फिर बांधने लगी, तथा उतारे हुए भूषणोंको फिर पहनने लगी।३१। कामदेवकी तपनसे वह ऐसी तप्त हुई कि, केलेके पत्तोंकी हवा, चन्दन, काजल, चन्द्रमाकी किरणें, शीतलहार और घनसागर चन्दनका लेप भी उसे शांतिदायक न हुआ । उससे कामाग्नि शांत नहीं हुई ।३२-३३। विरहसे व्याकुल हुई उस विद्याधरीकी भूख प्यास निद्रा जाती रही। कोई भी शारीरिक सुख नहीं रहा । बहुतसे वैदयोंने अाकर उसे देखी, परन्तु कुछ फल नहीं हुआ। क्योंकि उसका विरहसे उत्पन्न हुआ रोग साध्य नहीं था।३४-३५।
एक दिन राज सभामें बैठे हुए राजा कालसंवरने प्रद्य म्नकुमारसे कहा, बेटा ! मेरी एक बात सुन ।३६। तेरी माता तो रोगसे अतिशय पीड़ित है, उसके जीनेमें भी सन्देह हो रहा है, फिर तू उसके पास अभी तक क्यों नहीं गया है ? ॥३७। तब प्रद्युम्नकुमारने विनयपूर्वक अपने पितासे कहा, मैंने माता की बीमारी की बात न तो सुनी और न जानी । इमलिये नहीं गया। अब आप की
आज्ञासे हे विभो ! में माताके महलमें अभी जाता हूँ। ऐसा कहकर वह शीघ्र ही कनकमालाके महलमें गया वहां जाके उसने बड़े दुःखसे देखा कि, वह खाली भूमि पर मो रही है। उसका शरीर विरहसे घायल हो रहा है ।३७४०। माताको दुःखी देखकर प्रद्युम्न विनयपूर्वक प्रणाम करके और उसके आगे नीचा मस्तक करके बैठ गया।४१। उसके शरीर की चेष्टा और स्वरूपको देखकर प्रद्युम्नकुमार रोग का कारण विचारने लगा कि, मुझे यह रोग ती वात पित्त कफजनित दिखता नहीं है। परन्तु इसके शरीरमें वेदना अवश्य ही बड़ी भारी हो रही है।४२-४३॥ माता के शरीरमें यह रोग किस प्रकार उत्पन्न हुअा है, और इसकी शाति कैसे होगी ? ।४४। जब तक कुमारने नीचा मुंह किये हुए दुःखके साथ इस प्रकार अनेक चिन्तायें की, और रोगके कारणका विचार किया, तब तक
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