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________________ वनमें पहुँचकर धीर वीर कुमारने देखा कि, एक मनोजव नामका विख्यात विद्याधर एक वृक्षके नीचे बँधा हुअा है ।१५। उसे देखकर कुमारने निडर होकर पूछा कि, हे विद्याधर ! इस जनशून्य वन | चरित्र में तुझे किसने बांधा है ? ।१६। मनोजवने उत्तर दिया, हे नाथ ! मेरे वचन सुनिये । वसन्तक नामके विद्याधरने जो कि मेरा पूर्वका बैरी है, मुझे बांधा है ।१७। हे विभो ! अब मैं आपकी शरणमें आया हूँ। मेरा शत्रु इसी वृक्षपर है । मैं आपका किंकर हूँ, इसलिये मुझे जल्दीसे छोड़ दो।१८। यह सुनकर कुमारने कहा, हे भाई ! तू व्यर्थ भय मत कर, मैं तुझे बहुत जल्दी छोड़ देता हूँ।१६। कुमारने ज्यों || ही विद्याधरको छोड़ा, त्योंही वह इनसे बिना कुछ बातचीत किये, धीरे २ शत्रुके पीछे गया और जल्दी ही उसे बांधकर कुमारके सामने ले आया और बोलाः-उपकारसमुद्रस्वरूप ! आपसे बिना पूछे ही जो मैं यहांसे जल्द ही चला गया था, सो हे नाथ ! इस रिपुके पकड़नेके लिये चला गया था। अब मैं आपके ही प्रसाद से जीता हूँ।२०-२२। ऐसा कहकर उस विद्याधरने कुमारको दो विद्याएँ एक बहुमूल्य हार और एक इन्द्रजाल नामकी विद्या संतुष्ट करनेके लिये दी। इसके पश्चात् प्रद्युम्नकुमारने मनोजव और वसन्तक इन दोनों विद्याधरोंका विरोध भिटाकर उनमें खूब मित्रता करा दी। इससे सन्तुष्ट होकर वसन्तक विद्याधरने कुमारको अपनी नवीन यौवनकी धारण करनेवाली और सम्पूर्ण शुभ लक्षणों वाली, एक अतिशय सुन्दरी कन्या दे दी। प्राचार्य महाराज कहते हैं कि, पुण्यसे क्या २ वस्तुएँ प्राप्त नहीं होती? अर्थात् पुण्यसे सभी कुछ प्राप्त हो सकता है ।२२३-२२५। इस प्रकार अनेक लाभोंको लेकर आते हुए प्रद्युम्नकुमारको देखकर वे मूर्ख राजकुमार मन ही मन में जल गये । और क्रोधित होकर प्रद्युम्नको कालवन नामक वनको ले गये । वनसे कुछ दूर खड़े वजदंष्ट ने फिर भी पहलेकी तरह कहा, इस वनमें जो कोई प्रवेश करेगा, वह उत्तम लाभको प्राप्त करेगा ।२६-२७। तब उसके वचन सुनकर बलवान कुमार जिसका चित्त लाभके लोभसे प्रसन्न हो रहा था, www.janary.org Jain Educatnterational For Private & Personal Use Only
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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