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________________ प्रद्युम्न १७० मदनकुमार पर्वत के दोनों शिखरोंके बीच में जाकर खड़ा हुआ, तब वे दोनों दिव्यशिखर दोनों ओर से झुककर आपस में मिलने लगे और कुमारको बीचमें दाबने ( चपेटने ) लगे । ५६ । कुमार समझ गया कि, यह कोई देवकी माया है, इसलिये उसने दोनों शिखरोंको अपने दोनों हाथोंसे रोककर अपनी कुहनियोंका ठूंसा लगाया ।५७| तब एक वहां रहनेवाला महा असुर प्रगट हुआ। वह कर्कशध्वनि से अडवण्ड बकने लगा जिससे प्रद्युम्न उसके साथ युद्ध करने लगा । अन्तमें हारकर असुरने हाथ जोड़े और कहा । ५८-५६ । हे नाथ क्षमा करो में आपका दास हूँ। ऐसा कहकर देवने कुमारको दो रत्नोंके कुण्डल दिये । ६० । जब कुण्डल लेकर प्रद्युम्नको आता देखा, तब दुष्ट बन्धुगण कुपित हुए और वज्रदंष्ट्र से बोले । ६१ । इस दुष्ट बलवाले प्रद्युम्नको हम सब मारेंगे। क्यों कि यह पापी जहां जाता है, वहींसे महा लाभ लेकर वापिस आता है । यदि इस समय इसका निवारण नहीं किया जावेगा, तो पीछे कठिनाई होगी। क्योंकि, व्याधियां और बैरी जड़ पकड़ लेनेपर दुर्जय हो जाते हैं ।६२-६३। तत्र वज्रदंष्ट्रने उत्तर दिया, भातृगण निराश मत होत्रो, उत्साह भंग न करो, अभी तो सैकड़ों उपाय उसको मारने के हैं । १६४ | किसी न किसी जगह लोभयुक्त प्रद्युम्न फँस जायगा और प्राण तज देगा। क्योंकि लोभी किसी न किसी संकट में पड़कर मरणको प्राप्त हो जाता है और निलोंभी मुखको प्राप्त होता है । इतने में प्रद्युम्न या पहुँचा, सब मायावी भ्राता उससे मिले । वह वज्रदंष्ट्र के चरणों में नम्रीभूत होगया, तब वे सब मिलकर उसे सब ओर से रमणीय और नाना कौतुकों से भरे हुए विजयार्द्ध पर्वतको देखने के लिये ले गये । उक्त वनमें एक प्राम्रवृक्ष (सहकार ) लगा हुआ था । उससे दूर खड़े होकर पापात्मा वज्रदंष्ट्र बोला । १६५ १६८ । जो कोई महानुभाव इस आम्रवृक्षके अमृततुल्य फल भक्षण करे, सो सदा यौवनयुक्त रहे, जरावर्जित रहे और सौभाग्यशाली होवे । ६९ । तब बली प्रद्युम्न बड़े भ्राता से बोले, भाई ! For Private & Personal Use Only Jain EducaInternational www.jattelbrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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