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गद्यम्न
अपने वशमें कर लिया अर्थात उसे जीत लिया।
तब सपराजने नमस्कार किया और सन्तुष्ट होकर उसे एक नागशय्या वीणा कोमल आसन | चरित्र सिंहागन यस्त्र प्राभूषण तथा गृहकारिका और सैन्यरतिका ये दो विद्यायें दक्षिणामें दीं। जिन्हें कुमार ने ग्रहण की ।२३-२५। इसप्रकार उस देवको अपना माज्ञाकारी बनाकर उसे वहीं छोड़कर और भेंटके पदाथ साथ लेकर वह देवपूज्य प्रद्युम्नकुमार गुफामेंसे बाहर निकलकर अपने भाइयोंके समीप आया। इसे देखकर वे भी मायाचारीसे प्रसन्नता पूर्वक मिले ।२८-२९॥
इसके पीछे वे सब प्रद्युम्नकुमारको एक भयङ्कर देवरक्षित बावड़ी दिखानेको ले गये । उससे कुछ दूर खड़े होकर वजूदंष्ट्र बोला:-जो पुरुष शंकारहित होकर इस वापिकामें स्नान करता है, वह सुभग, रूप सम्पन्न तथा जगतका पति होता है ।१३०-१३१॥ भाईके वचन सुनते ही वह भयरहित तथा बुद्धिमान कुमार वेगसे जाकर बावड़ीमें कूद पड़ा। और गजेन्द्रके समान निर्भय होकर पानीमें मज्जन करने लगा। उसके दोनों हाथोंसे वापिकाके जलके बलपूर्वक पालोड़ित तथा ताड़ित होनेसे वापिका रक्षक देव बहुत क्रोधित हुआ। इसके मृदंगके समान जल ताड़नेके शब्दोंको सुनकर वह बाहर निकल आया और बोला, अरे पापी ! नराधम ! तूने इस सुरेन्द्रकी पवित्र जल वापिका जिसमें निर्मल कमल प्रफुल्लित हो रहे हैं, अपने हाथ पांवके संचालन वा आघातसे क्यों अपवित्र की ? ३३. ३६। रे दुराचारी ! तूने यह अन्याय रूप वृक्षका बीज बोया, अब उसका फल चाख ! देख तुझे मैं अभी यमपुरीको पहुँचा देता हूँ।३७। ऐसे निन्दय वचन सुनते ही क्रोधमे संतप्त होकर प्रद्युम्न बोले
-रे असुराधम ! वृथा ही क्यों बड़बड़ाता है, तुझे अपनी शूरवीरताका घमण्ड हो तो उसे लड़ाई में प्रगट करना । यदि तू शूरवीर हो, तथा कृत्कृत्य हो तो आ मेरे माम्हने ।३८-३९। उसके इन वचनों से क्रोधित होकर राक्षस भी युद्ध करनेके लिये उद्यत हो गया। दोनोंका घार युद्ध हुआ अन्तमें
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