SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध नामक वनको चला गया । और तपस्या करने को उद्यत हो गया । वहा उसने गुरुके द्वारा पाई उत्कृष्ट विद्याओं का साधन किया । पश्चात् पुण्यके प्रभावसे रोहिणी विद्याका साधन करके और उसकी सिद्धि से अतिशय प्रसन्न होकर महान् उत्सवके सहित वह अपने अलंकार नामक नगरको लौट आया । ६६-७१। तथा छोटे भाईसे राज्यका कारबार अपने हाथमें लेकर अंकुश रहित स्वतंत्र होकर राज्य करने लगा । विद्याओंके द्वारा साधन किये वैभवसे इन्द्रके समान शोभित होता था । इसप्रकार राजा हिरण्यनाभने पुण्य के प्रभावसे चिरकाल तक राज्यसुख भोगा । ७२ । एक दिन वह राजा संसारको निःसार जानकर वैराग्यको प्राप्त हो गया । और तत्काल ही राज्याभिषेक पूर्वक अपने पुत्रको विभूतिसम्पन्न राज्य सौंप कर श्रीनमिनाथ स्वामीके समवसरणमें गया । ।७३-७४ | उसने जिनेश्वरको नमस्कार कर परम भक्तिसे हाथ जोड़कर विनती की कि : - हे भगवन् । यह संसार असार है, मुझे इस बातका भली भांति श्रद्धान हो गया है । मैं अनादिकाल से संसार में ल रहा हूँ अतएव हे तीन भुवनके नाथ ! संसारका नाश करनेवाला कोई उत्कृष्ट व्रत मुझे प्रदान करो । ७५-७६। तब नमिनाथ स्वामीने उत्तर दिया, हे भव्य ! तूने भला विचार किया। जिनेश्वरी दीक्षा भागियों को प्राप्त नहीं होती है । इसलिये तू सहर्ष महाव्रत अङ्गीकार कर । जिस समय राजा हिरण्यनाभि दीक्षा ग्रहण करनेको तत्पर हुआ, उसी समय विद्याओंने हाथ जोड़कर विनती की कि, हे नाथ! आप तो अब जिनेन्द्र भाषित दीक्षा लेते हो, हम आपके बिना अनाथ हो जावेंगी, बतलाओ कि, हम क्या करें । ७७-७६ । यह सुनकर राजा हिरण्यनाभिने श्रीनमिनाथ स्वामिसे पूछा, हे भगवन् । इन विद्याका क्या करना चाहिये ? इनका स्वामी कौन होगा ? आप दयाकर प्रगट कीजिये |८०| तब जिनेन्द्र दिव्यध्वनि खिरी कि, :- हे वत्स ! इन विद्या त्रोंका जो स्वामी होनहार है, उसे मैं पहले ही बताता हूं, ध्यान देकर सुनो । ८१-८२ 1 Jain Educah International द्यम्न દુઃ For Private & Personal Use Only www.jagibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy