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चरित्र
क्या पूछता हे अच्छी बात है तू ही जा ।४२। तब सन्तुष्ट होकर सरलचित्न प्रद्युम्नकुमार शीघ्र ही उस गोपुरमें चला गया। जैसे कोई निःशंक होकर अपने घर में घुसता है ।४३॥ कुमार वेगसे आगे | बढ़ा और बीचमें पहुँचते ही उसने जोरसे शब्द किया तथा पैरोंसे द्वारको धक्का दिया।४४॥ शब्दको सुनते ही भुजंगनामा देव जाग उठा और क्रोधसे लाल होकर प्रद्युम्नकुमार पर झपटके बोलाःअरे पापी दुराचारी अधम मनुष्य तूने मेरा दिव्यस्थान क्यों अपवित्र किया ? ।४५-४६। क्या तूने नहीं सुना है कि जो मेरे घरमें पांव भी रखता है, उसको मैं देखते ही मार डालता हूँ ! तेरी क्या मौत श्रा गई है अथवा किमीने तुझे बहका दिया है तब प्रद्युम्नकुमार धीरवीरतासे बोला, रे असुराधम ! मूढ़ ! तू क्यों वृथा ही गरज रहा है ? तुझमें कुछ बल हो, तो मेरे साम्हने ा और मुझसे युद्ध कर, जिससे तुझे अभी मालूम हो जाय कि, शूरता किसे कहते हैं और कायरता (डरपोकपन) किसे कहते हैं ।४७-४९। ज्यों ही देवने ऐसे शब्द सुने, त्योंही वह क्रोधित होकर प्रद्युम्नकुमार पर उछला । तब दोनों शूरवीरों का महाभयंकर मल्लयुद्ध हुआ। दोनों घुस्सा, मुट्ठी, चपेट वा हुँकारकी ध्वनिसे चिरकाल तक लड़ते रहे ।५०-५२। अन्तमें भुजंगनामादेव हार गया और वह कुमारके चरणों में गिरकर नमस्कार करके वोला, हे नाथ ! मैं आपका चाकर हूँ और आप मेरे स्वामी हो। इसलिये मुझपर कृपा करो और मेरा अपराध क्षमा करो ।५२-५३। इसप्रकार विनयसे प्रसन्न करके देवने श्रीप्रद्युम्नकुमार को एक सुवर्णमय रत्नजटित सिंहासनपर बिठा दिया। उस पर विराजमान होकर उन्होंने देवसे पूछा, तुम कौन हो, और किस वास्ते इस पर्वतकी गुफामें रहते हो ? विनयसे अपने शरीरको झुकाकर देव बोला, स्वामी ! मैं सत्य २ निवेदन करता हूँ, आप ध्यानसे सुनें,-मैं यहां आपके लिये ही चिरकाल मे निवास करता हूँ। इसका खुलासा हाल इस प्रकार है कि,-५४-५६।।
इसी विजयाद्ध पर्व पर अलंकार नामका एक उत्तम नगर है जो समृद्धशाली लोगोंसे सघन
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