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नमस्कार करके वे बाहर निकल आये |२८| पश्चात् वे सबके सब दुष्ट मायाचार करके कामदेव से आकर के मिल गये और शीघ्र ही उससे ऊपरी प्रीति करने लगे | २६ | वे सदाकाल प्रद्युम्नके खान, पान, १६१ शयन, श्रासनादिक में घातका मौका देखने लगे । यहां तक कि, वे दुष्ट प्रद्युम्नके भोजन, पानके पदार्थों में विष मिलाने लगे । परन्तु दैवयोग से वह विष अमृतरूप परिणमने लगा। पूर्व पुण्य के प्रभावसे दुःखकारी पदार्थ भी सुखकारी हो जाता है ।
जब दुष्टोंने देखा कि, हमने हजारों उपाय रचे, परन्तु पुण्ययोग से प्रद्युम्नका कुछ भी बिगाड़ न हुआ, तब कुपित होकर उन्होंने उसे नष्ट करनेका एक दूसरा उपाय अपने मनमें स्थिर किया । ३२ | तदनुसार वे दुष्ट भ्राता वज्रदंष्ट्रको अपना अगुआ बनाकर और विश्वास दिलाकर प्रद्युम्न कुमारको विजयार्द्ध शिखर पर ले गये | ३३ | वहां उन्होंने जिनेन्द्र भगवानका शुभ्र शरदऋतुके बादलोंके आकार को धारण करनेवाला, हजार शिखरों वाला, मनोहर, रत्नसुवर्णमयी जिनमन्दिर देखा । उसके भीतर जाकर उन सबने जिन भगवानकी वन्दना की । ३४-३५। पश्चात् वे सब जिनमन्दिरसे बाहर निकलकर द्वार पर खड़े हो गये | ३६ | जब सबने गिरिशिखरपर गोपुर देखा, तब वज्रदंष्ट्र महाधूर्त बोला, भाइयों ? मैं तुम्हें एक बड़ी अच्छी बात बताता हूँ, जिसे बड़े विद्याधर कहते चले आये हैं । वह यह है कि, जो कोई इस गोपुर के भीतर जायगा उसे सुख वा राज्यका देनेवाला मनोवांछित लाभ होवेगा । पश्चात् वह कुशलता से लौट आवेगा । यह बात किसी सामान्य पुरुषकी कही हुई नहीं है । किन्तु वृद्ध विद्या - धरोंका ऐसा कथन है । यह कदापि सत्य नहीं है । सो तुम सब यहीं तिष्ठो मैं जाता हूँ और तुम्हारे लिये शीघ्र लाभ लेकर आता हूँ । ३७-४०।
तव पराक्रमी प्रद्युम्नकुमार वज्रदंष्ट्रसे बोला, भाई ! कृपाकर मुझे आज्ञा दो, तो मैं इस गोपुर में जाकर लाभ ले आता हूँ | ४१| तब कुटिल श्राशयका धारक वज्रदंष्ट्र बोला, प्रद्युम्न ! तू मुझसे
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