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होकर विचारने लगाः-हाय हाय मुझ पापीने ऐसा जगनिंद्य कर्म क्यों किया धर्मात्माओंको परस्त्रीहरण तथा परस्त्रीसेवन करना सर्वथा अनुचित है ।४२-४३। मैं तो धर्म अधर्म कर्मों को वा उनके फलों को अच्छी तरहसे जानता था फिर भी मोहके वशीभूत होकर मैं अंधा कैसे हो गया।४४। जो असत्य है वह कभी सत्य नहीं हो सकता और जो अधर्म है वह त्रिकालमें कभी धर्म नहीं हो सकता ऐसा जानकर ज्ञानवानोंको अधार्मिक सकल निन्दनीक कार्य कभी न करना चाहिये ।४५। यह शरीर माताके रुधिर और पिताके वीर्य से उत्पन्न हुअा है। मल मूत्रादि अशुचि पदार्थयुक्त गर्भस्थानमें रहा है । माताके उगालसे बढ़ा है, अतिशय निन्द्यद्वारसे बाहर निकला है, अपवित्र सप्तधातुमयी है, और चर्म से आच्छादित अस्थि तथा जालका पिंड है। ऐसे शरीरको देखकर मोह कैसे किया जाता है ।४६. ४७॥ हाय ! यह जीव संसारकी दशाको इन्द्रजालके समान अस्थिर जानता बूझता हुअा भी मूढ़ होकर क्यों इसी में मोहित होता है बड़ी विचित्रता है ।४८। मेरे घरमें क्या मनोहर सुन्दर रानियाँ नहीं थीं फिर मुझ जड़मतिने इस पराङ्गनाका हरण सेवन क्यों किया ?।४। जैसा मेंने इस भवमें पापकर्म उपार्जन किया है वैसा ही मुझे फल भोगना पड़ेगा। क्योंकि जैसा बीज बोते हैं, वैसा ही फल उत्पन्न होता है ।५०। क्या मेरे पास रूपयौवनसम्पन्ना बड़े और उन्नत कुच धारंण करनेवाली चित्तको चुराकर वशीभूत करनेवाली स्त्रियां नहीं थीं, जो मैंने मोहके जालमें फँस परवनिता सेवनरूप घृणित कर्म किया यह मोह ही नरकका ले जाने वाला और संसारका कारण है ।५१-५२। धन, धान्य, स्त्री, यौवन, पंचेन्द्रियके विषय, सेना, बन्धुवर्ग, पुत्र, मित्रादिके तथा यह जीवन कोई भी स्थिर नहीं है । ।५३। इसप्रकार जिस समय विषयाभिलाषासे विरक्त होकर राजा मधु संसारकी असारताका विचार करते हुए उत्तरोत्तर वैराग्य परिणतिको प्राप्त हो रहे थे, तथा उस परस्त्री सेवन करनेवाले पुरुषको छोड़ने की आज्ञा देकर अपने महलमें बैठे थे, उसी समय एक मुनिराज आहार लेनेके लिये महल की
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