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ऐसा मालूम होता है कि, ब्रह्मा ने चन्द्रका सार ग्रहण करके इसका मुख बनाया है, कमल से इसके हाथ पांव बनाये हैं, हस्तीके कुम्भस्थल लेकर दोनों स्तन बनाये हैं, मृगीके नेत्रोंसे नेत्र बनाये हैं और हसिनकी चाल लेकर इसकी गति बनाई है । ६५-६६ । अथवा विधाताने किस प्रकार इसकी रचना की है, कुछ समझ नहीं आती। इसके समान रूपवान सुन्दरांगी जगत में न कोई है न कोई हुई और न कभी होवेगी ।६७। चन्द्रप्रभाको इस तरह चिन्तवन करते हुए राजा मधुका चित्त कामवाणसे वेधा गया और वह शून्य हृदय होकर चित्रामके समान हलन चलन क्रिया से रहित होकर उसके सौन्दर्यको देखते ही रहा, मानों सुन्दरीने उसके चित्तको चुरा ही लिया हो । पुनः राजा विचारने लगा कि । ६८ । महीका जन्म मफल है, उसीका मनुष्य भव पाना सार्थक है, तथा वही धरातल पर कृत्कृत्य है, उसीका पूर्ण भाग्योदय है और उसके पूर्वभव के प्रबल पुण्यका इस समय उदय है, जिसकी यह मनोहर सुन्दरी प्राणवल्लभा है । ६६-७०। जिस समय राजा मधु इस प्रकार मोहपाशमें फँसे हुए थे और चिन्ताचक्र में गोते लगा रहे थे उसीसमय रानी चन्द्रप्रभा - अपने प्राणनाथ हेमरथ के साथ राजा मधुकी आरती करके अपने स्थानको गई । परन्तु अपने साथ राजा मधका चित्त भी चुराये लिये गई । ७१ । अयोध्या के स्वामी राजा मधुका चित्त ठगाया जाने से छला जानेसे शून्य जैसा हो गया। उसके विरह दुःखसे वे अतिशय चिंतातुर होगये । शय्याको पाकर उसपर पड़ गये । मानसिक दुःखके मारे उन्होंने खाना पीना, सोना, बोलना छोड़ दिया ।७२-७३ | राजाकी ऐसी दशा देखकर एक सचतुर मंत्री पास आया । उसने राजाको उदास देखकर अनुमान किया कि ये किसी गुप्त चिंता में पड़े हुए हैं । ७४ । चौर स्नेहपूर्वक पूछा, महाराज ! आप ऐसे विकल और चिंतातुर क्यों हो रहे हैं? आप पूर्व के समान न तो वस्त्राभूषण शरीर पर धारण करते हो और न आपकी देहकी चेष्टा ही जैसे पहले थी अब दोख पड़ती है | स्वामिन्! क्या या चित्तमें उस दुष्ट बैरीका खटका लगा हुआ है ? । ७५-७६ । शत्रुविषयक रंचमात्र
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