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प्रद्यम्न
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राजकन्याने श्रीश्रुतसागर मुनिराजके पास निर्मल जिनदीक्षा ले ली।३। स्वयम्बरमें तिष्ठे हुए राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि, बिना कारण उदासीन होकर राजकन्या कैसे चली गई ? ८४ | चरित्र राजा भी अपनी पुत्रीके उदासीन होनेका कुछ भी कारण न जान सका। इस प्रकार राजकन्या को सम्बोधित करके वह देव अपने मनोवांछित स्थान को चला गया ।८५। राजकन्याने चिरकाल पर्यन्त अर्जिका के महाव्रत पालन किये आयुके अन्तमें शरीरको छोड़कर स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्गलोकको प्राप्त किया।८६। जिनधर्मके प्रभावसे इस जीवको क्या प्राप्त नहीं होता ? अर्थात् मनोवांछित सभी पदार्थ प्राप्त होते हैं । ऐसा जानकर जिन भाषित धर्मका सदाकाल पालन करना योग्य है ।८७।
___ इसप्रकार मुनिराजने कथाके प्रसंगानुसार कुत्ती और चांडालका वृत्तांत जो पूर्वभवमें श्रेष्ठिपुत्रों के माता पिता थे संक्षेपसे कह सुनाया ।८८। तब दोनों सेठके पुत्र मुनिवरको अष्टांग नमस्कार करके प्रसन्नता पूर्वक अपने घर गये और जिनपूजनादि धर्मकृत्य करने लगे।८६। पश्चात् सम्यक्त्वको पालते हुए वे उत्तम सन्याससहित मरके सौधर्म स्वर्ग में देव हुए।१०। जिस प्रकार आकाशमें पवनके सहारेसे मेघ उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रथम स्वर्गमें उपपाद शय्यासे वे उत्पन्न हुए।।१। जिसप्रकार एकदम
आकाशमें इन्द्र धनुष तथा विजली सर्वांगसुन्दर पूर्णरूपसे उत्पन्न होती है, उसी प्रकार पुण्योदयसे सेठके पुत्र स्वर्ग में पूर्ण अवयवसहित वैक्रियक शरीरवाले उत्पन्न होगये ।६२-९३। उसी समय देवांगनायें श्राईं और भारती आदि से पूजा करने लगीं।६४। देवताओंने स्वर्गके दिव्य वस्त्राभरण पहनने को दिये और अनेक प्रकार की असवारी आदिसे उनकी सेवा की ।।५। इस प्रकार मणिभद्र और पूर्णभद्र श्रेष्ठिपुत्र सर्व शुभ लक्षणोंके धारक, सर्व वस्त्राभूषणभूषित और विमान असवारी पर आरूढ़ ऐसे सौधर्म स्वर्गमें देव हुए ।९६। सो ठीक ही है, पुण्यके प्रभावसे यह प्राणो स्वर्गको प्राप्त होता है । वहां जिन चैत्यालयों की वन्दना वा जिनधर्मकी प्रभावना करता है और देवांगनाओंके मुख कमलका
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