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|| चरित्र
पार होने की तदबीर बतायो ।६८। तब मुनिराजने उन्हें निःशंकादि अष्टांगसहित सम्यक्त्व ग्रहण | कराया और बारह प्रकारका धर्म भी धारण कराया ।६६। कुत्ती व चांडालने बड़ी प्रसन्नतासे व्रत ग्रहण
कर लिये । पश्चात् वह चांडाल तो धर्मवासना सहित एक महिने में ही सन्यासपूर्वक मरणको प्राप्त हुश्रा ७०। सो जिनधर्म के प्रभावसे नन्दोश्वर द्वीपमें अनेक देवोंकर सन्मानित पांच पल्यकी आयुवाला देव हुआ।७१। और कुत्ती सात दिन तक व्रतपालन करके मरने पर उसी देशके राजाकी मनोहर पुत्री हुई ।७२। वह अनेक प्रकारके शास्त्र और उपशास्त्र पढ़कर पण्डिता हो गई। उसके शरीरके सम्पूर्ण अवयव बड़े ही सुन्दर थे। एक दिन वह उपवनमें क्रीड़ा करनेके लिये गई। सो वहां राजाने उसके यौवनसम्पन्न रूपको देखकर देश देशान्तरके राजाओंके पास दूत द्वारा सुन्दर पत्र भेजकर उन्हें बुलाये ।७३-७४। और अनेक उत्सव सहित, स्वयंवरमंडप सजाया। जब स्वयंवरमंडप भर गया, तब राजकन्याने सोलह प्रकारके आभूषण पहनकर स्वयंवरमंडपमें प्रवेश किया।७५। उसी समय नन्दीश्वरद्वीपके देवने (चांडालके जीवने) जो जिनवन्दनाके लिये जा रहा था, राजकन्याका स्वयंवर देखा ७६। ज्यों ही वह वहां आया और राजकन्याको देखा, त्योंही उसे पूर्वभवका स्मरण हो पाया कि यह तो मेरी ही अग्निला नामकी स्त्री है, इसको अब समझाना चाहिये। ऐसा विचारकर उसने अपने स्वरूपको गुप्त रखके कहा, राजकन्ये ! क्ण तू अपने पूर्वभवकी दशाको भूल गई ? जो तूने मोह कर्मके उदयसे कुत्तीकी पर्यायमें कष्ट भोगे हैं । अब तूने पाणिग्रहण करनेकी लालसासे यह निरर्थक कार्य क्यों रचा है ? जो संसारका कारण है। क्योंकि भोग संसारके बढ़ानेवाले ही होते हैं।७७८०। और क्या तू पहले तीन भवोंके दुःख भूल गई जो नरकमें तथा कुत्ती और चांडालके भवमें अपन दोनोंने भोगे हैं ? ८१॥ देवके वाक्योंको सुनते ही राजकन्याको पूर्वभवका स्मरण हुआ और वह उसी समय वैराग्य परिणामसहित स्वयंवरसे बाहर निकल आई।२। और तत्काल ही वनमें जाकर उस वैराग्य विभूषिता
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