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प्रद्युम्न
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वायुभूति । ५४ । एकबार कारणवश सोमशर्मा व अग्निलाको जिनधर्मका प्रभाव प्रगट हुआ था और उनकी उस धर्म में प्रतीति भी उत्पन्न हुई थी । परन्तु अपनी जातिके घमंड में चकचूर होके जीवमात्र को तृणके समान गिनते हुए उन पापाचारियोंने दुर्लभतासे प्राप्त हुए जिनधर्मको त्याग दिया, जिस पापके कारण मरकर उन दोनों का नरकमें पतन हुआ ।५५-५६ । सो वहां उन्होंने पांच पल्य पर्यन्त छेदन, भेदन, ताड़न, पीलन, तापन आदि नानाप्रकारके घोर दुःख सहे । ५७| पापकर्म से प्रथम नरकके ऐसे दुःख सह या पूरी होने पर जिनधर्म की निन्दा तथा मिथ्यात्व के उदयसे कौशल देश में सोमशर्मा नामका तुम्हारा पूर्वभवका पिता तो चांडाल हुया और तुम्हारी अग्निला नामकी माता कुत्ती हुई है । उस समय तुम दोनों इनके पुत्र थे, अतएव तुमपर इनका अगाध स्नेह था । यही कारण है कि, इन्हें भी तुम्हें इस भवमें देखते ही मोह उत्पन्न हुआ ।५८- ६०| जिनधर्मका तिरस्कार करना कालकूट विषवृक्ष के समान है, जिसमें मिथ्यात्वरूपी जलसिंचन होने से अनेक अशुभ २ फल उत्पन्न होते हैं । ६१| तुमने पूर्वभवमें भली प्रकार जिनधर्मको पालन किया था, जिससे तुम मरणकर स्वर्गको प्राप्त हुए थे। वहां अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम सुख भोग वहां से चयकर तुम दोनों जिनधर्म के प्रभाव से सेठ के पुत्र हुए हो । हे पुत्रों ! ये सब पुण्य पापके फल हैं, ऐसा चित्त में दृढ़ श्रद्धान करो । ६२-६३ । इस प्रकार श्रेष्ठपुत्रोंने मुनिराज के कथनसे अपने स्नेह सम्बन्धका निश्चय किया और धर्मस्नेहके वशीभूत होकर उन्होंने उस चांडाल वा कुत्तीको भी व्रत ग्रहण कराया । ६४-६५ । धर्मको ग्रहण करके वह चांडाल मुनिराज से बोला, "हे स्वामिन्! आपकी कृपासे आपके कहे अनुसार मुझे पूर्वजन्मका स्मरण होनेसे सर्व वृत्तान्त प्रगट हुआ । ६६ । सो विप्रकी उत्तम जाति तो कहां और चांडाल का नीच कुल कहां, इसका विचार करते ही मेरा चित्त शोकचिन्तासे ग्रसित हो रहा है । ६७ । इसलिये आप मुझे शोक, रोग, भयसे याकुलता तथा जन्म, जरा मरणकी वेदनासहित इस संसार सागर से
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