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दोनों श्रेष्ठीपुत्र (भाई) धर्मवासनासहित अष्टाव्य लेकर चले ।३६-४०। दैवयोगसे उन्हें मार्ग में एक कुरूप चाण्डाल और उसके साथ एक कुत्ती दीख पड़ी।४१। उनको देखतेही दोनोंके हृदयमें बड़ी प्रीति चरित्र उत्पन्न हुई। ठीक ही है अन्तरात्मा बड़ा ज्ञानवान होता है, जिससे शुभाशुभकी समझ स्वयं उत्पन्न हो जाती है ।४२। इनको देखते ही चाण्डाल और कुत्ती दोनोंका चित्त भी बहुत प्रसन्न हुआ। इस प्रकार इन चारों प्राणियोंमें परस्पर गाढ़ी प्रीति उत्पन्न हुई। यहाँ तक कि, मोहके उदयसे ये अपने जीमें एक दूसरेको आलिंगन करने की इच्छा करने लगे।४३-४४। तब वे चारों जल्दीसे मुनिराजके पास गये । वहां श्रद्धावान सेठके पुत्र नमस्कार करके मुनिके समीप बैठ गये ।४५। और भक्तिसहित बोले, हे कृपासिन्धु ! इस चांडाल और कुत्तीसे हम दोनोंको इतना मोह उत्पन्न हुअा, सो इसका क्या कारण है ? कृपाकर वर्णन कीजिये । तब मुनिराज बोले, पुत्रों ! एकाग्रचित्त होकर सुनो, मैं कहता हूँ ४६-४७। कारण बिना कार्यकी उत्पत्ति कदापि नहीं होती है। ये कुत्ती और चांडाल पूर्वभवमें तुम्हारे माता पिता थे, इसीसे तुम्हें इनको देखते ही स्नेह उत्पन्न हुआ है। क्योंकि सम्पूर्ण देहधारियोंका अन्तरात्मा निश्चय-पूर्वक ज्ञानी होता है । उसे अपने पूर्वके सम्बन्धका अनुभव हो जाता है ।४८-४९। मुनिराजके ऐसे वचनों को सुनकर श्रोष्ठिपुत्रोंने पुनःप्रश्न किया, कि हे प्रभु पूर्वभवमें ये हमारे माता पिता किसप्रकार थे, सो भी आप सुनाइये । तब मुनिश्वर बोले पुत्रों सुनो
पहले यह चांडाल शालिग्राम नगरमें विप्र कुलसे उत्पन्न हुआ सोमशर्मा नामका विप था और यह कुत्ती अग्निला नामकी उसकी स्त्री थी। ये दोनों ही वेदशास्त्रके जानने वाले थे ॥५२॥ खोटे देवकी आराधनामें इनका चित्त लगा रहता था, यज्ञके लिये ये पशुवध करते थे जिनधर्म से बड़ा द्वेष रखते थे और हिंसा तथा अन्य २. निन्दित कार्यों में दत्तचिच रहते थे।५३। इस जन्म से पहले तीसरे भवमें तुम दोनों इनके पुत्र थे। उस समय तुममेंसे एकका नाम अग्निभूति था और दूसरे का
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