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प्रहाम्ना
एक धर्म ही है ।२५। भवभवान्तरमें परिभ्रमण करनेवाले पथिकस्वरूप संसारी जीवको मार्गमें आश्रयभूत धर्म ही एक प्रकारका पाथेय (कलेवा) है। धर्मसे भव्य को कभी कष्ट नहीं होता है धर्मके प्रभावसे संसारमें भटकता हुआ भी यह जीव सब जगह सुखी ही रहता है ।२६। जिसका चित्त धर्ममें लवलीन रहता है, उसीको ग्रह, भूत, पिशाच, शाकिनी सर्पादि किसी प्रकारकी बाधा नहीं करते ।२७। धर्मके प्रभावसे जीव तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, राजा तथा चर्मशरीरी (तद्भवमोक्षगामी) होता है ।२८। धर्मात्मा पुरुषोंको सात सात मंजिलवाले ऊंचे सुन्दर महल हाथी रथादि प्राप्त होते हैं।२९। सेवा करनेसे रूपवान स्त्री सुपुत्र स्नेही भाई और धनधान्यादिकी प्राप्ती होती है ।३०। जो वस्तु देश देशांतरोंमें तथा समुद्रोंके परली पार पाई जाती है वह भी धर्मके प्रभावसे अपने घर आ जाती है ॥३१॥ धर्मके समान कोई बन्धु नहीं, धर्मके समान कोई मित्र नहीं और धर्म के समान कोई स्वामी नहीं ऐसा जानकर भव्य जीवोंको अपना चित्त धर्ममें लगाना चाहिये ।३२।।
श्रीमहेन्द्रसूरि मुनीन्द्रके मुखारविंदसे धर्मका स्वरूप सुनकर मणिभद्र और पूर्णभद्र दोनों श्रेोष्ठिपुत्रोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने मुनीश्वरको नमस्कार किया, सम्यक्त्व धारण किया और गृहस्थोंके बारह प्रकारके व्रत ग्रहण किये ॥३३॥ पश्चात् मुनिराजको नमस्कार करके वे दोनों विचक्षण अपने घर लौट आये और जीव दयाको पालते हुए धर्म ध्यानसे तिष्ठे ।३५। जिनमन्दिरोंमें उन्होंने अष्टद्रव्यसे पूजा की तथा भक्तिभावसे प्रभावना भी की।३६। उत्तम पात्रोंको चार प्रकारका दान दिया, इसप्रकार उन्होंने धर्म, अर्थ, काम तीनों पुरुषार्थ सिद्ध किये परन्तु उनका चित्त पापकार्यमें रंचमात्र भी आसक्त न हुआ ।३७। धर्मके प्रभावसे लीलामात्रमें प्राप्त होनेवाले भोगउपभोगकी सामग्रीसे आनन्द लूटते हुये और सुखसागर में डूबे हुए उन्होंने अपना वीतता हुआ समय न जाना ।३८।
कुछ काल व्यतीत होनेके पश्चात् एक दिन वनमें मुनिराज पधारे। उनकी वन्दनाके लिये
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