SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नाम धर्मात्मा है ।१४। जिनेन्द्रदेवने धर्म दो प्रकारका वर्णन किया है एक अनागारधर्म और दूसरा सागारधर्म । अनागार धर्म तपस्वियोंके आचरने योग्य है और मागार धर्म गृहस्थियोंके धारण करने वरित्र योग्य है ।१५। इनमेंसे प्रथम ही गृहस्थोंके धर्मका वर्णन करता हूं जो कि सम्यग्दर्शन सहित पांच अणुव्रत और सात शीलोंवाला होता है। गृहस्थोंके मुनि, अर्जिका श्रावक श्राविकारूप चार प्रकारके संघ को आहार औषध शास्त्र (ज्ञान) और अभयदान देना चाहिये और सम्यक्त्वका नाश करनेवाले मिथ्यात्वको सर्वथा त्याग करना चाहिये ।१६-१७। तथा श्रीजिनेन्द्रने जो श्रावकोंके अष्टमूलगुण (पांच उदुम्बर और तीन मकारका त्याग) वर्णन किये हैं उनको धारण करनेके लिये उदुम्बरादिका त्याग करना चाहिये ।१८। इसके सिवाय किसी प्राणीकी निन्दा नहीं करनी चाहिये, कारण यह दुर्गतिको ले जाती है। किसीका विश्वासघात नहीं करना चाहिये, क्योंकि यह बड़ा पापका कारण है ।१६। प्रत्येक मासकी २ चतुर्दशी और २ अष्टमी इन चार पर्वके दिनोंमें उपवास धारण करना चाहिये, निःशंका, निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इस प्रकार - अङ्गसहित चन्द्रमाके समान निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करना चाहिये ।२०। जिस प्रकार समुद्रमें गिरे हुए रत्नका मिलना अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार अत्यन्त दुर्लभ धर्मरत्न जो हाथ लगता है, मिथ्यात्वके संसर्गसे मूलसे नष्ट हो जाता है और पीछे उसका मिलना दुष्कर हो जाता है ।२१। इस कारण मिथ्यात्वको जड़मूलसे उखाड़कर फेंक देना चाहिये और सर्वोत्कृष्ट सम्यक्त्वको ही धारना चाहिये । मिथ्यात्वसे नरक में पतन होता है और सम्यक्त्वके प्रभावसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जहां सर्व प्रकारके मनोज्ञ इन्द्रियजन्य सुख प्राप्त होते हैं और अनेक देवी देव सेवा करते हैं भयंकर लड़ाई में धर्म कवचके समान रक्षा करता है और दुस्तर संसार समुद्र से पार होनेको नावके समान होता है ।२४। इस लोकमें धर्म ही कल्पवृक्ष है, धर्म-ही चिन्तामणि रत्न है, धर्म ही कामधेनु है और हरएक चिंतित पदार्थको देनेवाला Jain Educal intemational ३१ For Private & Personal Use Only www.library.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy