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प्रद्यम्न
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कृपा करो और जिनदीक्षा ग्रहण कराओ, जिससे संसार के जन्ममरणकी झंझट से छूटकर में निराकुल अवस्था को प्राप्त हो जाऊँ ॥ १०३ ॥
राजा अरिंजय के वचनों को सुनकर श्रीमहेन्द्रसूरिने कहा हे नृपति ! तूने दीक्षा ग्रहण करनेका बहुत उत्तम विचार किया है । १०४ | ऐसा विचार पुण्यवानोंके सिवाय दूसरोंके चित्तमें उत्पन्न नहीं होता जिनदीक्षा के प्रभाव से यह जीव कर्म काटके मोक्ष पदको प्राप्त कर सकता है— फिर स्वर्गादिककी तो कथा ही क्या है ? । १०५ | तुम्हें ऐसा दृढ़ निश्चय करके जैनी दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण करना चाहिये । मुनिराज के मुखारविंद से राजा अरिंजयने ऐसे वचन सुनकर अपने पुत्रको राज्यका कारभार सौंप दिया । १०६ । और अनेक राजाओंके साथ सर्वप्राणियोंकी हितकारिणी स्वर्गमोक्षकी देनेवाली दीक्षा ग्रहण की । १०७ । राजाकी वैराग्यपरिणति और मुनिराजका धर्मोपदेश सुनकर विचक्षण बुद्धि के धारक समुद्रदत्त सेठको भी वैराग्य उत्पन्न हुआ । सो उसने भी संसारकी लीला समझकर अपने दोनों पुत्रोंको घरका कारभार सौंप दिया और सर्व परिग्रहसे रहित होकर जिनदीक्षा धारण कर ली । ।१०८-१०६। तत्पश्चात् समुद्रदत्त सेठके मणिभद्राक्ष और पूर्णभद्र नामक दोनों श्रेष्ठ तथा चतुर पुत्रों ने मुनिराजको नमस्कार किया और सर्व हितकारी गृहस्थोंका धर्म पूछा कि, १० हे महाराज ! हम अभी आपकी उपदेशी हुई जिनदीक्षा ग्रहण करने को असमर्थ हैं, इसलिये कृपाकरके गृहस्थियोंका धर्म जो कल्पवृक्ष के समान स्वर्गादिक तथा परम्परासे मोक्षका देनेवाला है, हमें बतलाइये | ११ | तब मुनिराज ने कहा, हे श्रेष्ठपुत्रों ! आदरपूर्वक एकचित्त होकर सुनो, मैं संक्षेपमें गृहस्थ धर्मका वर्णन करता हूँ | १२ | जो संसार कूपमें गिरनेवाले जीवोंको हस्तावलम्बन देकर शीघ्र ही धारयति अर्थात् धारण करता है - बचा लेता है, उसे धर्म कहते हैं | १३ | जो सर्व प्राणियोंको अपनी आत्मा के समान समझता है, पर द्रव्यको मिट्टी के ढेले के तुल्य गिनता है और दूसरे की स्त्रीको माताके सदृश समझता है, उसीका
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