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चरित्र
रत्नत्रयसे मण्डित हो, मान और मायासे वर्जित हो, प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोगरूपी चार वेदोंमें आपकी ही महिमा वर्णित है, ध्यानमें वा गानमें आपका ही ध्यान वा गुणानुवाद किया जाता है, कोटि सूर्य के प्रकाशके समान आपका तेज है, और कोटि चन्द्रमाके उजालेके समान श्रापकी कान्ति है, निश्चयसे आपके दर्शनमात्रसे मनुष्योंके पाप नाशको प्राप्त होते हैं, पापही लोकमें शंकर अर्थात् शान्तिके कर्ता हो, तीन लोकमें आपका ज्ञान व्याप्त है अतएव आपही विष्णु हो, परम ब्रह्मस्वरूप आत्मस्वरूप होने से ब्रह्मा हो, पापरूपी शत्रु को नाश करनेवाले हर अर्थात् महादेव हो, संसारबन्धनसे मुक्त हो, शरणागत भव्य जीवोंके तारनेवाले हो, अनन्त चतुष्टय तथा समवसरणादिलक्ष्मीके ईश्वर हो, तीन भुवनके स्वामी हो, धर्मचक्रके चलानेवाले हो, संसारसमुद्रमें डूबते हुये भव्य जीवोंकी रक्षा करते हो, अतएव दयासिंधु हो, भव्य जीवोंकी सुखपरंपराको बढ़ानेवाले हो अतएव वर्द्धमान हो और जिन अर्थात् गणधरादिके ईश्वर हो, अतएव जिनेश्वर हो ॥४२-४६॥” इसप्रकार जगद्गुरु श्रीमहावीर स्वामीकी स्तुति करके राजा श्रेणिकने भक्तिभावस अष्टांग नमस्कार किया, जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फलरूप अष्टद्रव्यसे विधिपूर्वक जिनेन्द्रकी पूजा की और बारह सभात्रोंमें जो मनुष्योंका कोठा था, उसमें जाकर बैठ गया।
पश्चात् जिनेश्वरका धर्मोपदेश प्रारम्भ हुआ-धर्म दो प्रकारका है, एक सागारधर्म और दूसरा अनागारधर्म । गृहस्थियोंके धर्मको सागारधर्म कहते हैं और यतियोंके धर्म को अनागारधर्म कहते हैं, यतिधर्मसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, और गृहस्थधर्मसे स्वर्गादिककी प्राप्ति होती है । अनागार अर्थात् यतियोंके चारित्रके तेरह भेद हैं—पंचमहाव्रत अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह; पंचसमिति अर्थात् ईर्या, भाषा, एषणा, आदान, निक्षेपण और तीन गुप्ति अर्थात् मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । इसके पीछे यतियोंके विख्यात अट्ठाईस मूलगुण और असंख्यात उत्तरगुण भी कहे जो
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